आद्यन्त : धर्मवीर भारती

Aadyant : Dharamvir Bharati

1. जिन्दगी की डाल पर

जिन्दगी की डाल पर
कण्टकों के जाल पर-काश एक फूल-सा मैं भी अगर फूलता !
कोयलों से सीखता जिन्दगी के मधुर गीत
बुलबुलों से पालता हिलमिल कर प्रेम प्रीत
पत्तियों के संग झूम
तितलियों के पंख चूम
चाँदी भरी रातों में-
चन्द्र किरण डोर का डाल कर मृदुल हिण्डोला।
कलियों के संग-संग धीमे-धीमे झूलता !
-काश एक फूल-सा मैं भी अगर फूलता !
किरनें बन जाता मैं स्वर्णिम मधुमास में
शबनम उलझाता मैं मखमल की घास में
नेह से निथार कर
दोनों नयनों में प्यार की शराब भर
जिन्दगी के प्यासों के सूखे होठ सींचता।
उनके तन में बसी हुई टीस-पीर खींचता
उनके दिल का दर्द हर-उनके दिल का घाव भर
खुशी के खुमार में
मैं भी अपने दुख-दर्द की कहानी भूलता !!
-काश एक फूल-सा मैं भी अगर फूलता !!

2. नये-नये विहान में

नये-नये विहान में
असीम आस्मान में-
मैं सुबह का गीत हूँ।
मैं गीत की उड़ान हूँ
मैं गीत की उठान हूँ
मैं दर्द का उफ़ान हूँ
मैं उदय का गीत हूँ
मैं विजय का गीत हूँ
सुबह-सुबह का गीत हूँ
मैं सुबह का गीत हूँ
चला रहा हूँ छिप के
रोशनी के लाल तीर मैं
जगा रहा हूँ पत्थरों के
दिल में आज पीर मैं
गुदागुदा के फूल को
हँसा रहा हूँ आज मैं
ये सूना-सूना आस्मां
बसा रहा हूँ आज मैं
सघन तिमिर के बाद फिर
मैं रोशनी का गीत हूँ
मैं जागरण का गीत हूँ
बादलों की ओर से
छिप के मुस्करा उठूँ
मैं जमीन से उड़ँ
कि आस्मां पे छा उठूँ
मैं उड़ूँ कि आस्मां के
होश संग उड़ चलें
मैं मुड़ूँ कि जिन्दगी
की राह संग मुड़ चलें
मैं जिन्दगी की राह पर
मुसाफ़िरों की जीत हूँ
स्वर्ण गीत ले
विहग कुमार-सा चहक कर
मैं खिजाँ की डाल पर
बहार-सा महक उठूँ
कण्टकों के बन्धनों में
फूल का उभार हूँ
मैं पीर हूँ मैं प्यार हूँ
बहार हूँ खुमार हूँ
भविष्य मैं महान् हूँ
अतीत हूँ, वर्तमान हूँ
मैं युग-युगों का गीत हूँ
युग-युगों का गीत
मैं सुबह का गीत हूँ !!

3. मैं कब हारा हूँ काँटों से

मैं कब हारा हूँ काँटों से, घबराया कब तूफ़ानों से ?
लेकिन रानी मैं डरता हूँ बन्धन के इन वरदानों से !
तुम मुझे बुलाती हो रानी, फूलों सा मादक प्यार जहाँ है
काली अँधियाली रातों में पूनम का संचार जहाँ है
लेकिन मेरी दुनिया में तो ताजे फूल बिखर जाते हैं
यहाँ चाँद के भूखे टुकड़े सिसक-सिसक कर मर जाते हैं
यहाँ गुलामी के चोंटों से दूर जवानी हो जाती है
यहाँ जिन्दगी महज मौत की एक कहानी हो जाती है
यह सब देख रहा हूँ, फिर भी तुम कहती हो प्यार करूँ मैं
यानी मुर्दों की छाती पर स्वप्नों का व्यापार करूँ मैं ?
यदि तुम शक्ति बनों जीवन की स्वागत आओ प्यार करें हम
यदि तुम भक्ति बनो जीवन की स्वागत आओ प्यार करें हम
लेकिन अगर प्यार के माने तुममें सीमित हो मिट जाना
लेकिन अगर प्यार के माने सिसक-सिसक मन में घुट जाना
तो बस मैं घुट कर मिट जाऊँ इतनी दुर्बल हृदय नहीं यह
अगर प्यार कमजोरी है तो विदा-प्यार का समय नहीं यह !!

4. ये प्यासे-प्यासे होठ ठण्डी आह

ये प्यासे-प्यासे होठ ठण्डी आह मेरे साथियो,
ये नहीं है जिन्दगी की राह मेरे साथियों !
आस्मान चीरकर
उतर पड़ो जमीन पर
तुम प्रलय की धार बन कर बन्धनों को तोड़ दो
बह चले फिर जिन्दगी की धार मेरे साथियों !
नाश है निर्माण का सिंगार मेरे साथियों !!
रूप के उभार से
रंग के निखार से
कण्टकों की छोटी-छोटी जालियों को तोड़ दो
छोटे-छोटे बन्धनों के पार मेरे साथियों !
जिन्दगी का हर नया उभार मेरे साथियों !!
प्यस हो अगर लगी
प्यास हो अगर जगी
तो एक पाँव से दबा के आस्मां निचोड़ दो
जिन्दगी है मौत का सवाल मेरे साथियों !
जिन्दगी की रेत खूँ से लाल मेरे साथियों !!

5. गुलाब मत यहाँ बिखर

गुलाब मत यहाँ बिखर
पराग मत यहाँ बिखर
यह गुलाम देश है !
ये दास भावना
ये गीले-गीले गीत औ’ उदास कल्पना
हैं यही गुलाम देश की निशानियाँ
बेहयाई का महज यहाँ गुजर बसर !
यह गुलाम देश है !
ये सूने-सूने गाँव
ये भूखे-सूखे पंजरों के लड़खड़ाते पाँव
ये नहीं है जिन्दगी ये मौत की छाँव
आदमी यहाँ पिये हैं मौत का ज़हर
ये गुलाम देश हैं।
तू बन यहाँ प्रसून
तेज कण्टकों का आज काम है यहाँ
टूटने से पहले चुभ कर चूस ले दो बूँद खून
है यहाँ रहम गुनाह भूल कर रहम न कर !
यह गुलाम देश है !!

6. ये जो पैर की धमक से काँप रहा है जहां

ये जो पैर की धमक से काँप रहा है जहां
ये जो टूट-टूट कर बिखर रहा है आस्मां
चल रहा मनुष्य है !!
धूल जो उड़ी तो छा गया है आस्मान
मिट गये हैं आस्मान से प्रकाश के निशान
आज भूल कर विशाल स्वर्ग लोक को
भूमि के घृणा विषाद हर्ष शोक को
कुचल रहा मनुष्य है
कुचल रहा मनुष्य !!
है मनुष्य की न प्रेरणा परम्परा
हँस दिया मनुष्य स्वर्ग बन गयी धरा
हँस दिया मनुष्य छा गया नवल प्रभात
अब रही न भूख दासता न रक्त पात
बदल रहा मनुष्य है
बदल रहा मनुष्य !!
जिन्दगी की आग में सुलग रहा इन्सान
लाल रोशनी से भर रहा है ये जहां
औ धुआँ उमड़ के बन रहा है उफ़ान
पर निखर रहा मनु्ष्य स्वर्ण के समान
जल रहा मनुष्य है
जल रहा मनुष्य !!
पैर में मनुष्य के अतीत के निशान
सामने मनुष्य के भविष्य है महान्
चीरता मनुष्य है यथार्थ वर्तमान
और दोनों हाथ में दबा के आस्मान
चल रहा मनुष्य है
चल रहा मनुष्य !!!

7. इस दुनिया के कणकणों में बिखरी मेरी दास्तां

इस दुनिया के कणकणों में बिखरी मेरी दास्तां
इस दुनिया के पत्थरों पर अंकित मेरा रास्ता
फिर भला क्यों जाना चाहूँगा माझी उस पार मैं !!
माना मैंने उस तरफ हरियाले कोमल फूल हैं
माना मैंने उस तरफ लहरों में बिखरे फूल हैं
माना मैंने इस तरफ बस कंकड़ पत्थर धूल हैं
किन्तु फिर क्या पत्थरों पर सर पटकता ही रहूँ !
खींच कर यदि ला सकूँ उस पार को इस पार मैं
फिर भला क्यों जाना चाहूँगा माझी उस पार मैं !!
पैरों में भूकम्प मेरी साँसों में तूफान है
स्वर लहरियों में मेरी हँसते प्रलय के गान हैं
मौत ही जब आज मेरी जिन्दगी का मान है
फिर दबा लूँ क्यों न दोनों मुट्ठियों में कूल को
बह चलूँ खुद क्यों न बन जलधार मैं
फिर भला क्यों जाना चाहूँगा माझी उस पार मैं !!
जिन्दगी की आस में लुटती यहाँ है जिन्दगी
जिन्दगी की आस में घुटती यहाँ है जिन्दगी
किन्तु फिर क्या बैठकर आकाश को ताका करूँ
तोड़ कर यदि ला सकूँ आकाश को इक बार मैं
फिर भला क्यों जाना चाहूँगा माझी उस पार मैं !!!

8. न शान्ति के लिए मचल

न शान्ति के लिए मचल
जल निशा प्रदीप जल !
जल कि काली मौत वाली रात को जला !
जल कि खुद परवाना बनकर सूरज तुझ पर मँडराये
तेरी एक जलन में विहँसें सौ विहान उज्ज्वल !
जल शिक्षा प्रदीप जल !!
जिन्दगी की रात में मत प्रेत बन कर घूम
पतझड़ों में झूम
पीली-पीली पत्तियों के मुर्दा होठ चूम
धीमे से उन पर उढ़ा दे मौत का झीना कफ़न
किन्तु फिर उन पर सिसक कर मत तू मिट जा धूल में
जल उठ खिल उठ मेरे दीपक, जिन्दगी के फूल में
इस दुनिया की डालियों में
इन घुटती आँधी मालियों में
बन बसन्ती आग तू सुलगा दे जलती कोपलें
जिन्दगी की कोपलें
जिन्दगी है मेरे साथी-मरने की कला !
जल कि काली मौत वाली रात को जला !!!

9. मुरली निर्माण

गड़ने दो
यदि फाँसें गड़ी हैं उँगलियों में:
मुरली बनाने का यह है अनिवार्य क्रम!

फिर इन्हीं उँगलियों के मादक स्पर्शों से
बाजेगी मुरली फिर अपने अनियारे स्वर
नहीं, नहीं, वृथा नहीं गया
यह सारा श्रम!

10. सूर्या

क्या यह अंधेरा ही एक मात्र सत्य है?
प्रश्न यह मैंने बार-बार दोहराया है!

उत्तर में कोई कुछ नहीं बोला!

उत्तर में, ओ सूर्या!
तुमको हर बार मैंने अपने
कुछ और निकट, और निकट पाया है!

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