शायद : जौन एलिया

Shayad : Jaun Elia

नज़्में

शायद

मैं शायद तुम को यकसर भूलने वाला हूँ
शायद जान-ए-जाँ शायद

कि अब तुम मुझ को पहले से ज़ियादा याद आती हो
है दिल ग़मगीं बहुत ग़मगीं

कि अब तुम याद दिलदाराना आती हो
शमीम-ए-दूर-माँदा हो

बहुत रंजीदा हो मुझ से
मगर फिर भी

मशाम-ए-जाँ में मेरे आश्ती-मंदाना आती हो
जुदाई में बला का इल्तिफ़ात-ए-मेहरमाना है

क़यामत की ख़बर-गीरी है
बेहद नाज़-बरदारी का आलम है

तुम्हारे रंग मुझ में और गहरे होते जाते हैं
मैं डरता हूँ

मिरे एहसास के इस ख़्वाब का अंजाम क्या होगा
ये मेरे अंदरून-ए-ज़ात के ताराज-गर

जज़्बों के बैरी वक़्त की साज़िश न हो कोई
तुम्हारे इस तरह हर लम्हा याद आने से

दिल सहमा हुआ सा है
तो फिर तुम कम ही याद आओ

मता-ए-दिल मता-ए-जाँ तो फिर तुम कम ही याद आओ
बहुत कुछ बह गया है सैल-ए-माह-ओ-साल में अब तक

सभी कुछ तो न बह जाए
कि मेरे पास रह भी क्या गया है

कुछ तो रह जाए

अजनबी शाम

धुँद छाई हुई है झीलों पर
उड़ रहे हैं परिंद टीलों पर
सब का रुख़ है नशेमनों की तरफ़
बस्तियों की तरफ़ बनों की तरफ़

अपने गुलों को ले के चरवाहे
सरहदी बस्तियों में जा पहुँचे
दिल-ए-नाकाम मैं कहाँ जाऊँ
अजनबी शाम मैं कहाँ जाऊँ

तआ'क़ुब

मुझ से पहले के दिन
अब बहुत याद आने लगे हैं तुम्हें
ख़्वाब-ओ-ता'बीर के गुम-शुदा सिलसिले
बार बार अब सताने लगे हैं तुम्हें
दुख जो पहुँचे थे तुम से किसी को कभी
देर तक अब जगाने लगे हैं तुम्हें

अब बहुत याद आने लगे हैं तुम्हें
अपने वो अहद-ओ-पैमाँ जो मुझ से न थे
क्या तुम्हें मुझ से अब कुछ भी कहना नहीं

बस एक अंदाज़ा

बरस गुज़रे तुम्हें सोए हुए
उठ जाओ सुनती हो अब उठ जाओ
मैं आया हूँ
मैं अंदाज़े से समझा हूँ
यहाँ सोई हुई हो तुम
यहाँ रू-ए-ज़मीं के इस मक़ाम-ए-आसमानी-तर की हद में
बाद-हा-ए-तुंद ने
मेरे लिए बस एक अंदाज़ा ही छोड़ा है!

दरीचा-हा-ए-ख़याल

चाहता हूँ कि भूल जाऊँ तुम्हें
और ये सब दरीचा-हा-ए-ख़याल
जो तुम्हारी ही सम्त खुलते हैं
बंद कर दूँ कुछ इस तरह कि यहाँ
याद की इक किरन भी आ न सके

चाहता हूँ कि भूल जाऊँ तुम्हें
और ख़ुद भी न याद आऊँ तुम्हें
जैसे तुम सिर्फ़ इक कहानी थीं
जैसे मैं सिर्फ़ इक फ़साना था

सज़ा

हर बार मेरे सामने आती रही हो तुम
हर बार तुम से मिल के बिछड़ता रहा हूँ मैं
तुम कौन हो ये ख़ुद भी नहीं जानती हो तुम
मैं कौन हूँ ये ख़ुद भी नहीं जानता हूँ मैं
तुम मुझ को जान कर ही पड़ी हो अज़ाब में
और इस तरह ख़ुद अपनी सज़ा बन गया हूँ मैं

तुम जिस ज़मीन पर हो मैं उस का ख़ुदा नहीं
पस सर-ब-सर अज़िय्यत ओ आज़ार ही रहो
बेज़ार हो गई हो बहुत ज़िंदगी से तुम
जब बस में कुछ नहीं है तो बेज़ार ही रहो
तुम को यहाँ के साया ओ परतव से क्या ग़रज़
तुम अपने हक़ में बीच की दीवार ही रहो

मैं इब्तिदा-ए-इश्क़ से बे-मेहर ही रहा
तुम इंतिहा-ए-इश्क़ का मेआ'र ही रहो
तुम ख़ून थूकती हो ये सुन कर ख़ुशी हुई
इस रंग इस अदा में भी पुरकार ही रहो

मैं ने ये कब कहा था मोहब्बत में है नजात
मैं ने ये कब कहा था वफ़ादार ही रहो
अपनी मता-ए-नाज़ लुटा कर मिरे लिए
बाज़ार-ए-इल्तिफ़ात में नादार ही रहो

जब मैं तुम्हें नशात-ए-मोहब्बत न दे सका
ग़म में कभी सुकून-ए-रिफ़ाक़त न दे सका
जब मेरे सब चराग़-ए-तमन्ना हवा के हैं
जब मेरे सारे ख़्वाब किसी बेवफ़ा के हैं
फिर मुझ को चाहने का तुम्हें कोई हक़ नहीं
तन्हा कराहने का तुम्हें कोई हक़ नहीं

मगर ये ज़ख़्म ये मरहम

तुम्हारे नाम तुम्हारे निशाँ से बे-सरोकार
तुम्हारी याद के मौसम गुज़रते जाते हैं
बस एक मन्ज़र-ए-बे-हिज्र-ओ-विसाल है जिस में
हम अपने आप ही कुछ रंग भरते जाते हैं

न वो नशात-ए-तसव्वुर कि लो तुम आ ही गए
न ज़ख़्म-ए-दिल की है सोज़िश कोई जो सहनी हो
न कोई वा'दा-ओ-पैमाँ की शाम है न सहर
न शौक़ की है कोई दास्ताँ जो कहनी हो
नहीं जो महमिल-ए-लैला-ए-आरज़ू सर-ए-राह
तो अब फ़ज़ा में फ़ज़ा के सिवा कुछ और नहीं
नहीं जो मौज-ए-सबा में कोई शमीम-ए-पयाम
तो अब सबा में सबा के सिवा कुछ और नहीं

उतार दे जो किनारे पे हम को कश्ती-ए-वहम
तो गिर्द-ओ-पेश को गिर्दाब ही समझते हैं
तुम्हारे रंग महकते हैं ख़्वाब में जब भी
तो ख़्वाब में भी उन्हें ख़्वाब ही समझते हैं

न कोई ज़ख़्म न मरहम कि ज़िंदगी अपनी
गुज़र रही है हर एहसास को गँवाने में
मगर ये ज़ख़्म ये मरहम भी कम नहीं शायद
कि हम हैं एक ज़मीं पर और इक ज़माने में

ग़ज़लें

नया इक रिश्ता पैदा क्यूँ करें हम

नया इक रिश्ता पैदा क्यूँ करें हम
बिछड़ना है तो झगड़ा क्यूँ करें हम

ख़मोशी से अदा हो रस्म-ए-दूरी
कोई हंगामा बरपा क्यूँ करें हम

ये काफ़ी है कि हम दुश्मन नहीं हैं
वफ़ा-दारी का दावा क्यूँ करें हम

वफ़ा इख़्लास क़ुर्बानी मोहब्बत
अब इन लफ़्ज़ों का पीछा क्यूँ करें हम

हमारी ही तमन्ना क्यूँ करो तुम
तुम्हारी ही तमन्ना क्यूँ करें हम

किया था अहद जब लम्हों में हम ने
तो सारी उम्र ईफ़ा क्यूँ करें हम

नहीं दुनिया को जब पर्वा हमारी
तो फिर दुनिया की पर्वा क्यूँ करें हम

ये बस्ती है मुसलामानों की बस्ती
यहाँ कार-ए-मसीहा क्यूँ करें हम

गाहे गाहे बस अब यही हो क्या

गाहे गाहे बस अब यही हो क्या
तुम से मिल कर बहुत ख़ुशी हो क्या

मिल रही हो बड़े तपाक के साथ
मुझ को यकसर भुला चुकी हो क्या

याद हैं अब भी अपने ख़्वाब तुम्हें
मुझ से मिल कर उदास भी हो क्या

बस मुझे यूँही इक ख़याल आया
सोचती हो तो सोचती हो क्या

अब मिरी कोई ज़िंदगी ही नहीं
अब भी तुम मेरी ज़िंदगी हो क्या

क्या कहा इश्क़ जावेदानी है!
आख़िरी बार मिल रही हो क्या

हाँ फ़ज़ा याँ की सोई सोई सी है
तो बहुत तेज़ रौशनी हो क्या

मेरे सब तंज़ बे-असर ही रहे
तुम बहुत दूर जा चुकी हो क्या

दिल में अब सोज़-ए-इंतिज़ार नहीं
शम-ए-उम्मीद बुझ गई हो क्या

इस समुंदर पे तिश्ना-काम हूँ मैं
बान तुम अब भी बह रही हो क्या

अब वो घर इक वीराना था बस वीराना ज़िंदा था

अब वो घर इक वीराना था बस वीराना ज़िंदा था
सब आँखें दम तोड़ चुकी थीं और मैं तन्हा ज़िंदा था

सारी गली सुनसान पड़ी थी बाद-ए-फ़ना के पहरे में
हिज्र के दालान और आँगन में बस इक साया ज़िंदा था

वो जो कबूतर उस मूखे में रहते थे किस देस उड़े
एक का नाम नवाज़िंदा था और इक का बाज़िंदा था

वो दोपहर अपनी रुख़्सत की ऐसा-वैसा धोका थी
अपने अंदर अपनी लाश उठाए मैं झूटा ज़िंदा था

थीं वो घर रातें भी कहानी वा'दे और फिर दिन गिनना
आना था जाने वाले को जाने वाला ज़िंदा था

दस्तक देने वाले भी थे दस्तक सुनने वाले भी
था आबाद मोहल्ला सारा हर दरवाज़ा ज़िंदा था

पीले पत्तों को सह-पहर की वहशत पुर्सा देती थी
आँगन में इक औंधे घड़े पर बस इक कव्वा ज़िंदा था

आज लब-ए-गुहर-फ़िशाँ आप ने वा नहीं किया

आज लब-ए-गुहर-फ़िशाँ आप ने वा नहीं किया
तज़्किरा-ए-ख़जिस्ता-ए-आब-ओ-हवा नहीं किया

कैसे कहें कि तुझ को भी हम से है वास्ता कोई
तू ने तो हम से आज तक कोई गिला नहीं किया

जाने तिरी नहीं के साथ कितने ही जब्र थे कि थे
मैं ने तिरे लिहाज़ में तेरा कहा नहीं किया

मुझ को ये होश ही न था तू मिरे बाज़ुओं में है
या'नी तुझे अभी तलक मैंने रिहा नहीं किया

तू भी किसी के बाब में अहद-शिकन हो ग़ालिबन
मैं ने भी एक शख़्स का क़र्ज़ अदा नहीं किया

हाँ वो निगाह-ए-नाज़ भी अब नहीं माजरा-तलब
हम ने भी अब की फ़स्ल में शोर बपा नहीं किया

तू भी चुप है मैं भी चुप हूँ ये कैसी तन्हाई है

तू भी चुप है मैं भी चुप हूँ ये कैसी तन्हाई है
तेरे साथ तिरी याद आई क्या तू सच-मुच आई है

शायद वो दिन पहला दिन था पलकें बोझल होने का
मुझ को देखते ही जब उस की अंगड़ाई शर्माई है

उस दिन पहली बार हुआ था मुझ को रिफ़ाक़त का एहसास
जब उस के मल्बूस की ख़ुश्बू घर पहुँचाने आई है

हुस्न से अर्ज़-ए-शौक़ न करना हुस्न को ज़क पहुँचाना है
हम ने अर्ज़-ए-शौक़ न कर के हुस्न को ज़क पहुँचाई है

हम को और तो कुछ नहीं सूझा अलबत्ता उस के दिल में
सोज़-ए-रक़ाबत पैदा कर के उस की नींद उड़ाई है

हम दोनों मिल कर भी दिलों की तन्हाई में भटकेंगे
पागल कुछ तो सोच ये तू ने कैसी शक्ल बनाई है

इशक़-ए-पेचाँ की संदल पर जाने किस दिन बेल चढ़े
क्यारी में पानी ठहरा है दीवारों पर काई है

हुस्न के जाने कितने चेहरे हुस्न के जाने कितने नाम
इश्क़ का पेशा हुस्न-परस्ती इश्क़ बड़ा हरजाई है

आज बहुत दिन बा'द मैं अपने कमरे तक आ निकला था
जूँ ही दरवाज़ा खोला है उस की ख़ुश्बू आई है

एक तो इतना हब्स है फिर मैं साँसें रोके बैठा हूँ
वीरानी ने झाड़ू दे के घर में धूल उड़ाई है

है फ़सीलें उठा रहा मुझ में

है फ़सीलें उठा रहा मुझ में
जाने ये कौन आ रहा मुझ में

'जौन' मुझ को जिला-वतन कर के
वो मिरे बिन भला रहा मुझ में

मुझ से उस को रही तलाश-ए-उमीद
सो बहुत दिन छुपा रहा मुझ में

था क़यामत सुकूत का आशोब
हश्र सा इक बपा रहा मुझ में

पस-ए-पर्दा कोई न था फिर भी
एक पर्दा खिंचा रहा मुझ में

मुझ में आ के गिरा था इक ज़ख़्मी
जाने कब तक पड़ा रहा मुझ में

इतना ख़ाली था अंदरूँ मेरा
कुछ दिनों तो ख़ुदा रहा मुझ में

गँवाई किस की तमन्ना में ज़िंदगी मैंने

गँवाई किस की तमन्ना में ज़िंदगी मैंने
वो कौन है जिसे देखा नहीं कभी मैंने

तिरा ख़याल तो है पर तिरा वजूद नहीं
तिरे लिए तो ये महफ़िल सजाई थी मैंने

तिरे अदम को गवारा न था वजूद मिरा
सो अपनी बेख़-कुनी की कमी न की मैंने

हैं मेरी ज़ात से मंसूब सद फ़साना-ए-इश्क़
और एक सत्र भी अब तक नहीं लिखी मैंने

ख़ुद अपने इश्वा-ओ-अंदाज़ का शहीद हूँ मैं
ख़ुद अपनी ज़ात से बरती है बे-रुख़ी मैंने

मिरे हरीफ़ मिरी यक्का-ताज़ियों पे निसार
तमाम उम्र हलीफ़ों से जंग की मैंने

ख़राश-ए-नग़्मा से सीना छिला हुआ है मिरा
फ़ुग़ाँ कि तर्क न की नग़्मा-परवरी मैंने

दवा से फ़ाएदा मक़्सूद था ही कब कि फ़क़त
दवा के शौक़ में सेहत तबाह की मैंने

ज़बाना-ज़न था जिगर-सोज़ तिश्नगी का अज़ाब
सो जौफ़-ए-सीना में दोज़ख़ उंडेल ली मैंने

सुरूर-ए-मय पे भी ग़ालिब रहा शुऊ'र मिरा
कि हर रिआयत-ए-ग़म ज़ेहन में रखी मैंने

ग़म-ए-शुऊर कोई दम तो मुझ को मोहलत दे
तमाम-उम्र जलाया है अपना जी मैंने

इलाज ये है कि मजबूर कर दिया जाऊँ
वगर्ना यूँ तो किसी की नहीं सुनी मैंने

रहा मैं शाहिद-ए-तन्हा नशीन-ए-मसनद-ए-ग़म
और अपने कर्ब-ए-अना से ग़रज़ रखी मैंने

है बिखरने को ये महफ़िल-ए-रंग-ओ-बू तुम कहाँ जाओगे हम कहाँ जाएँगे

है बिखरने को ये महफ़िल-ए-रंग-ओ-बू तुम कहाँ जाओगे हम कहाँ जाएँगे
हर तरफ़ हो रही है यही गुफ़्तुगू तुम कहाँ जाओगे हम कहाँ जाएँगे

हर मता-ए-नफ़स नज़्र-ए-आहंग की हम को याराँ हवस थी बहुत रंग की
गुल-ज़मीं से उबलने को है अब लहू तुम कहाँ जाओगे हम कहाँ जाएँगे

अव्वल-ए-शब का महताब भी जा चुका सेहन-ए-मय-ख़ाना से अब उफ़ुक़ में कहीं
आख़िर-ए-शब है ख़ाली हैं जाम-ओ-सुबू तुम कहाँ जाओगे हम कहाँ जाएँगे

कोई हासिल न था आरज़ू का मगर सानेहा ये है अब आरज़ू भी नहीं
वक़्त की इस मसाफ़त में बे-आरज़ू तुम कहाँ जाओगे हम कहाँ जाएँगे

किस क़दर दूर से लौट कर आए हैं यूँ कहो उम्र बरबाद कर आए हैं
था सराब अपना सुरमाया-ए-जुस्तजू तुम कहाँ जाओगे हम कहाँ जाएँगे

इक जुनूँ था कि आबाद हो शहर-ए-जाँ और आबाद जब शहर-ए-जाँ हो गया
हैं ये सरगोशियाँ दर-ब-दर कू-ब-कू तुम कहाँ जाओगे हम कहाँ जाएँगे

दश्त में रक़्स-ए-शौक़-ए-बहार अब कहाँ बाद-पैमाई-ए-दीवाना-वार अब कहाँ
बस गुज़रने को है मौसम-ए-हाव-हू तुम कहाँ जाओगे हम कहाँ जाएँगे

हम हैं रुस्वा-कुन-ए-दिल्ली-ओ-लखनऊ अपनी क्या ज़िंदगी अपनी क्या आबरू
'मीर' दिल्ली से निकलने गए लखनऊ तुम कहाँ जाओगे हम कहाँ जाएँगे

जाओ क़रार-ए-बे-दिलाँ शाम-ब-ख़ैर शब-ब-ख़ैर

(पूर्व-पत्नी ज़ाहिदा हिना के नाम)

जाओ क़रार-ए-बे-दिलाँ शाम-ब-ख़ैर शब-ब-ख़ैर
सहन हुआ धुआँ धुआँ शाम-ब-ख़ैर शब-ब-ख़ैर

शाम-ए-विसाल है क़रीब सुब्ह-ए-कमाल है क़रीब
फिर न रहेंगे सरगिराँ शाम-ब-ख़ैर शब-ब-ख़ैर

वज्द करेगी ज़िंदगी जिस्म-ब-जिस्म जाँ-ब-जाँ
जिस्म-ब-जिस्म जाँ-ब-जाँ शाम-ब-ख़ैर शब-ब-ख़ैर

ऐ मिरे शौक़ की उमंग मेरे शबाब की तरंग
तुझ पे शफ़क़ का साएबाँ शाम-ब-ख़ैर शब-ब-ख़ैर

तू मिरी शायरी में है रंग-ए-तराज़ ओ गुल-फ़िशाँ
तेरी बहार बे-ख़िज़ाँ शाम-ब-ख़ैर शब-ब-ख़ैर

तेरा ख़याल ख़्वाब ख़्वाब ख़ल्वत-ए-जाँ की आब-ओ-ताब
जिस्म-ए-जमील-ओ-नौजवाँ शाम-ब-ख़ैर शब-ब-ख़ैर

है मिरा नाम-ए-अर्जुमंद तेरा हिसार-ए-सर-बुलंद
बानो-ए-शहर-ए-जिस्म-ओ-जाँ शाम-ब-ख़ैर शब-ब-ख़ैर

दीद से जान-ए-दीद तक दिल से रुख़-ए-उमीद तक
कोई नहीं है दरमियाँ शाम-ब-ख़ैर शब-ब-ख़ैर

हो गई देर जाओ तुम मुझ को गले लगाओ तुम
तू मिरी जाँ है मेरी जाँ शाम-ब-ख़ैर शब-ब-ख़ैर

शाम-ब-ख़ैर शब-ब-ख़ैर मौज-ए-शमीम-ए-पैरहन
तेरी महक रहेगी याँ शाम-ब-ख़ैर शब-ब-ख़ैर

किसी से अहद-ओ-पैमाँ कर न रहियो

किसी से अहद-ओ-पैमाँ कर न रहियो
तो उस बस्ती में रहियो पर न रहियो

सफ़र करना है आख़िर दो पलक बीच
सफ़र लम्बा है बसे बिस्तर न रहियो

हर इक हालत के बेरी हैं ये लम्हे
किसी ग़म के भरोसे पर न रहियो

सुहूलत से गुज़र जाओ मिरी जाँ
कहीं जीने की ख़ातिर मर न रहियो

हमारा उम्र-भर का साथ ठेरा
सो मेरे साथ तू दिन-भर न रहियो

बहुत दुश्वार हो जाएगा जीना
यहाँ तो ज़ात के अंदर न रहियो

सवेरे ही से घर आजाइयो आज
है रोज़-ए-वाक़िआ' बाहर न रहियो

कहीं छुप जाओ न ख़ानों में जा कर
शब-ए-फ़ित्ना है अपने घर न रहियो

नज़र पर बार हो जाते हैं मंज़र
जहाँ रहियो वहाँ अक्सर न रहियो

हम कहाँ और तुम कहाँ जानाँ

हम कहाँ और तुम कहाँ जानाँ
हैं कई हिज्र दरमियाँ जानाँ

राएगाँ वस्ल में भी वक़्त हुआ
पर हुआ ख़ूब राएगाँ जानाँ

मेरे अंदर ही तो कहीं ग़म है
किस से पूछूँ तिरा निशाँ जानाँ

आलम-ए-बेकरान-ए-रंग है तू
तुझ में ठहरूँ कहाँ कहाँ जानाँ

मैं हवाओं से कैसे पेश आऊँ
यही मौसम है क्या वहाँ जानाँ

रौशनी भर गई निगाहों में
हो गए ख़्वाब बे-अमाँ जानाँ

दर्द-मंदान-ए-कू-ए-दिलदारी
गए ग़ारत जहाँ तहाँ जानाँ

अब भी झीलों में अक्स पड़ते हैं
अब भी नीला है आसमाँ जानाँ

है जो पुरखों तुम्हारा अक्स-ए-ख़याल
ज़ख़्म आए कहाँ कहाँ जानाँ

भटकता फिर रहा हूँ जुस्तुजू बिन

भटकता फिर रहा हूँ जुस्तुजू बिन
सरापा आरज़ू हूँ आरज़ू बिन

कोई इस शहर को ताराज कर दे
हुई है मेरी वहशत हा-ओ-हू बिन

ये सब मोजिज़-नुमाई की हवस है
रफ़ूगर आए हैं तार-ए-रफ़ू बिन

मआश-ए-बे-दिलाँ पूछो न यारो
नुमू पाते रहे रिज़्क़-ए-नुमू बिन

गुज़ार ऐ शौक़ अब ख़ल्वत की रातें
गुज़ारिश बिन गिला बिन गुफ़्तुगू बिन

हम रहे पर नहीं रहे आबाद

हम रहे पर नहीं रहे आबाद
याद के घर नहीं रहे आबाद

कितनी आँखें हुईं हलाक-ए-नज़र
कितने मंज़र नहीं रहे आबाद

हम कि ऐ दिल-सुख़न थे सर-ता-पा
हम लबों पर नहीं रहे आबाद

शहर-ए-दिल में अजब मोहल्ले थे
उन में अक्सर नहीं रहे आबाद

जाने क्या वाक़िआ' हुआ क्यूँ लोग
अपने अंदर नहीं रहे आबाद

हू का आलम है यहाँ नाला-गरों के होते

हू का आलम है यहाँ नाला-गरों के होते
शहर ख़ामोश है शोरीदा-सरों के होते

क्यूँ शिकस्ता है तिरा रंग मता-ए-सद-रंग
और फिर अपने ही ख़ूनीं-जिगरों के होते

कार-ए-फ़र्याद-ओ-फ़ुग़ाँ किस लिए मौक़ूफ़ हुआ
तेरे कूचे में तिरे बा-हुनरों के होते

किया दिवानों ने तिरे कोच है बस्ती से क्या
वर्ना सुनसान हों राहें निघरों के होते

जुज़ सज़ा और हो शायद कोई मक़्सूद उन का
जा के ज़िंदाँ में जो रहते हैं घरों के होते

शहर का काम हुआ फ़र्त-ए-हिफ़ाज़त से तमाम
और छलनी हुए सीने सिपरों के होते

अपने सौदा-ज़दगाँ से ये कहा है उस ने
चल के अब आइयो पैरों पे सरों के होते

अब जो रिश्तों में बँधा हूँ तो खुला है मुझ पर
कब परिंद उड़ नहीं पाते हैं परों के होते

न हुआ नसीब क़रार-ए-जाँ हवस-ए-क़रार भी अब नहीं

न हुआ नसीब क़रार-ए-जाँ हवस-ए-क़रार भी अब नहीं
तिरा इंतिज़ार बहुत किया तिरा इंतिज़ार भी अब नहीं

तुझे क्या ख़बर मह-ओ-साल ने हमें कैसे ज़ख़्म दिए यहाँ
तिरी यादगार थी इक ख़लिश तिरी यादगार भी अब नहीं

न गिले रहे न गुमाँ रहे न गुज़ारिशें हैं न गुफ़्तुगू
वो निशात-ए-वादा-ए-वस्ल क्या हमें ए'तिबार भी अब नहीं

रहे नाम-ए-रिश्ता-ए-रफ़्तगाँ न शिकायतें हैं न शोख़ियाँ
कोई उज़्र-ख़्वाह तो अब कहाँ कोई उज़्र-दार भी अब नहीं

किसे नज़्र दें दिल-ओ-जाँ बहम कि नहीं वो काकुल-ए-खम-ब-ख़म
किसे हर-नफ़स का हिसाब दें कि शमीम-ए-यार भी अब नहीं

वो हुजूम-ए-दिल-ज़दगाँ कि था तुझे मुज़्दा हो कि बिखर गया
तिरे आस्ताने की ख़ैर हो सर-ए-रह-ए-गुबार भी अब नहीं

वो जो अपनी जाँ से गुज़र गए उन्हें क्या ख़बर है कि शहर में
किसी जाँ-निसार का ज़िक्र क्या कोई सोगवार भी अब नहीं

नहीं अब तो अहल-ए-जुनूँ में भी वो जो शौक़-ए-शहर में आम था
वो जो रंग था कभी कू-ब-कू सर-ए-कू-ए-यार भी अब नहीं

ज़िक्र-ए-गुल हो ख़ार की बातें करें

ज़िक्र-ए-गुल हो ख़ार की बातें करें
लज़्ज़त-ओ-आज़ार की बातें करें

है मशाम-ए-शौक़ महरूम-ए-शमीम
ज़ुल्फ़-ए-अम्बर-बार की बातें करें

दूर तक ख़ाली है सहरा-ए-नज़र
आहू-ए-तातार की बातें करें

आज कुछ ना-साज़ है तब-ए-ख़िरद
नर्गिस-ए-बीमार की बातें करें

यूसुफ़-ए-कनआँ' का हो कुछ तज़्किरा
मिस्र के बाज़ार की बातें करें

आओ ऐ ख़ुफ़्ता-नसीबो मुफ़लिसो
दौलत-ए-बेदार की बातें करें

'जौन' आओ कारवाँ-दर-कारवाँ
मंज़िल-ए-दुश्वार की बातें करें

क्या हुए आशुफ़्ता-काराँ क्या हुए

क्या हुए आशुफ़्ता-काराँ क्या हुए
याद-ए-याराँ यार-ए-याराँ क्या हुए

अब तो अपनों में से कोई भी नहीं
वो परेशाँ रोज़गाराँ क्या हुए

सो रहा है शाम ही से शहर-ए-दिल
शहर के शब-ज़िंदा-दाराँ क्या हुए

उस की चश्म-ए-नीम-वा से पूछियो
वो तिरे मिज़्गाँ-शुमाराँ क्या हुए

ऐ बहार-ए-इंतिज़ार-ए-फ़स्ल-ए-गुल
वो गरेबाँ-तार-ताराँ क्या हुए

क्या हुए सूरत-निगाराँ ख़्वाब के
ख़्वाब के सूरत-निगाराँ क्या हुए

याद उस की हो गई है बे-अमाँ
याद के बे-यादगाराँ क्या हुए

क़ितआ

शर्म दहशत झिझक परेशानी

शर्म दहशत झिझक परेशानी
नाज़ से काम क्यूँ नहीं लेतीं
आप वो जी मगर ये सब क्या है
तुम मिरा नाम क्यूँ नहीं लेतीं

है मोहब्बत हयात की लज़्ज़त

है मोहब्बत हयात की लज़्ज़त
वर्ना कुछ लज़्ज़त-ए-हयात नहीं
क्या इजाज़त है एक बात कहूँ
वो मगर ख़ैर कोई बात नहीं

हर तंज़ किया जाए हर इक तअना दिया जाए

हर तंज़ किया जाए हर इक तअना दिया जाए
कुछ भी हो पर अब हद्द-ए-अदब में न रहा जाए
तारीख़ ने क़ौमों को दिया है यही पैग़ाम
हक़ माँगना तौहीन है हक़ छीन लिया जाए

जो हक़ीक़त है उस हक़ीक़त से

जो हक़ीक़त है उस हक़ीक़त से
दूर मत जाओ लौट भी आओ
हो गईं फिर किसी ख़याल में गुम
तुम मिरी आदतें न अपनाओ

चाँद की पिघली हुई चाँदी में

चाँद की पिघली हुई चाँदी में
आओ कुछ रंग-ए-सुख़न घोलेंगे
तुम नहीं बोलती हो मत बोलो
हम भी अब तुम से नहीं बोलेंगे

मेरी अक़्ल-ओ-होश की सब हालतें

मेरी अक़्ल-ओ-होश की सब हालतें
तुम ने साँचे में जुनूँ के ढाल दीं
कर लिया था मैं ने अहद-ए-तर्क-ए-इश्क़
तुम ने फिर बाँहें गले में डाल दीं

मैंने हर बार तुझ से मिलते वक़्त

मैंने हर बार तुझ से मिलते वक़्त
तुझ से मिलने की आरज़ू की है
तेरे जाने के ब'अद भी मैंने
तेरी ख़ुशबू से गुफ़्तुगू की है

जो रानाई निगाहों के लिए फ़िरदौस-ए-जल्वा है

जो रानाई निगाहों के लिए फ़िरदौस-ए-जल्वा है
लिबास-ए-मुफ़्लिसी में कितनी बे-क़ीमत नज़र आती
यहाँ तो जाज़बिय्यत भी है दौलत ही की पर्वर्दा
ये लड़की फ़ाक़ा-कश होती तो बद-सूरत नज़र आती

जो हक़ीक़त है उस हक़ीक़त से

जो हक़ीक़त है उस हक़ीक़त से
दूर मत जाओ लौट भी आओ
हो गईं फिर किसी ख़याल में गुम
तुम मिरी आदतें न अपनाओ

इश्क़ समझे थे जिस को वो शायद

इश्क़ समझे थे जिस को वो शायद
था बस इक ना-रसाई का रिश्ता
मेरे और उस के दरमियाँ निकला
उम्र भर की जुदाई का रिश्ता

साल-हा-साल और इक लम्हा

साल-हा-साल और इक लम्हा
कोई भी तो न इन में बल आया
ख़ुद ही इक दर पे मैं ने दस्तक दी
ख़ुद ही लड़का सा मैं निकल आया

पास रह कर जुदाई की तुझ से

पास रह कर जुदाई की तुझ से
दूर हो कर तुझे तलाश किया
मैं ने तेरा निशान गुम कर के
अपने अंदर तुझे तलाश किया

ये तेरे ख़त तिरी ख़ुशबू ये तेरे ख़्वाब-ओ-ख़याल

ये तेरे ख़त तिरी ख़ुशबू ये तेरे ख़्वाब-ओ-ख़याल
मता-ए-जाँ हैं तिरे क़ौल और क़सम की तरह
गुज़शता साल इन्हें मैं ने गिन के रक्खा था
किसी ग़रीब की जोड़ी हुई रक़म की तरह

कौन सूद-ओ-ज़ियाँ की दुनिया में

कौन सूद-ओ-ज़ियाँ की दुनिया में
दर्द ग़ुर्बत का साथ देता है
जब मुक़ाबिल हों इश्क़ और दौलत
हुस्न दौलत का साथ देता है

क्या बताऊँ कि सह रहा हूँ मैं

क्या बताऊँ कि सह रहा हूँ मैं
कर्ब ख़ुद अपनी बेवफ़ाई का
क्या मैं इस को तिरी तलाश कहूँ?
दिल में इक शौक़ है जुदाई का

उसके और अपने दरमियान में अब

उसके और अपने दरमियान में अब
क्या है बस रू-ब-रू का रिश्ता है
हाए वो रिश्ता-हा-ए-ख़ामोशी
अब फ़क़त गुफ़्तुगू का रिश्ता है

वो किसी दिन न आ सके पर उसे

वो किसी दिन न आ सके पर उसे
पास वादे को हो निभाने का
हो बसर इंतिज़ार में हर दिन
दूसरा दिन हो उस के आने का

मिरी जब भी नज़र पड़ती है तुझ पर

मिरी जब भी नज़र पड़ती है तुझ पर
मिरी गुलफ़म जान-ए-दिल-रुबाई
मिरे जी में ये आता है कि मल दूँ
तिरे गालों पे नीली रौशनाई

सर में तकमील का था इक सौदा

सर में तकमील का था इक सौदा
ज़ात में अपनी था अधूरा मैं
क्या कहूँ तुम से कितना नादिम हूँ
तुम से मिल कर हुआ न पूरा मैं

पसीने से मिरे अब तो ये रूमाल

पसीने से मिरे अब तो ये रूमाल
है नक़्द-ए-नाज़-ए-उल्फ़त का ख़ज़ीना
ये रूमाल अब मुझी को बख़्श दीजे
नहीं तो लाइए मेरा पसीना

ये तो बढ़ती ही चली जाती है मीआद-ए-सितम

ये तो बढ़ती ही चली जाती है मीआद-ए-सितम
जुज़ हरीफ़ान-ए-सितम किस को पुकारा जाए
वक़्त ने एक ही नुक्ता तो किया है तालीम
हाकिम-ए-वक़त को मसनद से उतारा जाए

थी जो वो इक तमसील-ए-माज़ी आख़िरी मंज़र उसका ये था

थी जो वो इक तमसील-ए-माज़ी आख़िरी मंज़र उसका ये था
पहले इक साया सा निकल के घर से बाहर आता है
इस के ब'अद कई साए से उसको रुख़्सत करते हैं
फिर दीवारें ढै जाती हैं दरवाज़ा गिर जाता है

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