हिंदी कविताएँ : फणीश्वर नाथ 'रेणु'

Hindi Poetry : Phanishwar Nath Renu


अपनी ज्वाला से ज्वलित आप जो जीवन

(दिनकर जी की मृत्यु पर) हाँ, याद है । उचक्के जब मंचों से गरज रहे थे हमने उन्हें प्रणाम किया था पहनाया था हार । भीतर प्राणों में काट रहे थे हमें हमारे वे बाप हमारी बुझी ज्वाला को धधका कर हमें अग्निस्नान कराकर पापमुक्त खरा बनाया। पल विपल हम अवरुद्ध जले धारा ने रोकी राह, हम विरुद्ध चले हमें झकझोर कर तुमने जगाया था 'रथ के घर्घर का नाद सुनो... आ रहा देवता जो, उसको पहचानो... अंगार हार अरपो रे...' वह आया सचमुच, एक हाथ में परशु और दूसरे में कुश लेकर किंतु..'तुम ही रूठकर चले गये। विशाल तमतोम और चतुर्दिक घिरी घटाओं की व्याकुलता से अशनि जनमी, धुआँ और ऊमस में छटपटाता हुआ प्रकाश खुलकर बाहर आया। किंतु, तुम...? अच्छा ही किया, तुम सप्राण नहीं आये। नहीं तो, पता नहीं क्या हो जाता ? यहां, जवानी का झंडा उड़ाते कालकूट पिये और भाल पर अनल किरीट लिये कृपाण, त्याग, तप, साधना, यज्ञ, जप को टेरते गरजते, तरंग से भरी आग भड़काते तुम्हारे बाग के असंखय अनल कुसुम तुम्हारी अगुआनी में आंखें बिछाकर प्रस्तुत थे............ उनकी जवानियां लहू में तैर तैर कर नहा रही थीं। ऐसे में तुम आते तो पता नहीं, और क्या क्‍या होता, पता नहीं ,अब तक क्या क्‍या हो जाता, और, तब तुमको फासिस्ट और चीनी और अमेरिकी और देसी सेठों की दलाली और देशद्रोह के जुर्म में निश्चय ही देश से बाहर निकाल दिया जाता। पता नहीं कहां.....किस देश .. किस हिमालय और गंगाविहीन देश में अच्छा ही किया, चले गये उत्तर की दिव्य, कंचन काया को दक्षिण की माटी माता की गोद में छोड़ बाहर ही बाहर, भले गये। हमें क्षमा करना, कविवर विराट। हम तुम्हारी आत्मा की शांति के बदले उसको अपनी काया की एकांत और पवित्र कोने में प्रतिष्ठित करने की कामना करते हैं। ताकि, जहां कहीं भी अनय हो उसे रोक सकें, जो करें पाप शशि सूर्य भी, उन्हें टोक सकें हमारे भीतर जो एक नया अंगार भर रहा है। बस, वही एक आधार है हमारा । कपट शोकातुर मुखौटा लगा रुआँसी आवाज में, गले को कंपा-कंपा तुमको श्रद्धांजलि देने का नाटक हम नहीं करेंगे। तुम तो जीवित हो, जीवित रहोगे हमारे बीच तेजोदीप्त ! मरने को हमेशा दोपहरी के तिमिर तुम्हारे दुश्मन ही मरेंगे । इस बार जब गाँव जाकर, उत्तर की ओर निहारूँगा हिमालय के स्वर्ण शिखरों में देखूंगा एक और नया शिखर निश्यय ही -- दिनकर ! इसे क्या संयोग ही कहेंगे ? तुम्हारी शवयात्रा से लौटकर बैठा ही था कि पड़ोस में कहीं रेडियोग्राम पर साधक गायक हरींद्रनाथ का भावाकुल कंठस्वर-- 'सूर्य अस्त हो गया ! गगन मस्त हो गया, सूर्य अस्त हो गया !' (जनवार्ता (वाराणसी) वार्षिकांक, 1975)

अपने ज़िले की मिट्टी से

कि अब तू हो गई मिट्टी सरहदी इसी से हर सुबह कुछ पूछता हूँ तुम्हारे पेड़ से, पत्तों से दरिया औ' दयारों से सुबह की ऊंघती-सी, मदभरी ठंडी हवा से कि बोलो! रात तो गुज़री ख़ुशी से? कि बोलो! डर नहीं तो है किसी का? तुम्हारी सर्द आहों पर सशंकित सदा एकांत में मैं सूंघता हूँ उठाकर चंद ढेले उठाकर धूल मुट्ठी-भर कि मिट्टी जी रही है तो! बला से जलजला आए बवंडर-बिजलियाँ-तूफ़ाँ हज़ारों ज़ुल्म ढाएँ अगर ज़िंदी रही तू फिर न परवाह है किसी की नहीं है सिर पे गोकि 'स्याह-टोपी' नहीं हूँ 'प्राण-हिन्दू' तो हुआ क्या? घुमाता हूँ नहीं मैं रोज़ डंडे-लाठियाँ तो! सुनाता हूँ नहीं-- गांधी-जवाहर, पूज्यजन को गालियाँ तो! सिर्फ़ 'हिंदी' रहा मैं सिर्फ़ ज़िंदी रही तू और हमने सब किया अब तक! सिर्फ़ दो-चार क़तरे 'ध्रुव' का ताज़ा लहू ही बड़ी फ़िरकापरस्ती फ़ौज को भी रोक लेगा कमीनी हरक़तों को रोक लेगा कि अब तो हो गई मिट्टी सरहदी (इसी से डर रहा हूँ!) कि मिट्टी मर गई पंजाब की थी शेरे-पंजाब के प्यारे वतन की तुम्हारे जिस्म पर पड़ने नहीं देंगे कदम नापाक उन फितनापरस्तों का ! सजग हम हैं कि तू आबाद रह मिट्टी हँसो तू कमल के संग रोज़ अपने प्रिय तलैयों में सरस सरसों के खेतों में, बसंती डाल घूँघट सदा तू मुस्कुराओ, हरे मैदान में, खलिहान में तू मस्त इतराओ ! सजग हम हैं ही प्यारी पाक मिट्टी कि इंक़लाबी रूह रुपौली! की अभी भी उन्हीं ज़ज़बों में अब तक है मचलती । (ध्रुव=ध्रुव कुंडू सन 1942 के आंदोलन में पूर्णियाँ में बारह वर्ष की उम्र में अंग्रेजी-फौज की गोलियों के शिकार होकर शहीद हुए ।) (1947)

इमरजेंसी

इस ब्लाक के मुख्य प्रवेश-द्वार के समने हर मौसम आकर ठिठक जाता है सड़क के उस पार चुपचाप दोनों हाथ बगल में दबाए साँस रोके ख़ामोश इमली की शाखों पर हवा 'ब्लाक' के अन्दर एक ही ऋतु हर 'वार्ड' में बारहों मास हर रात रोती काली बिल्ली हर दिन प्रयोगशाला से बाहर फेंकी हुई रक्तरंजित सुफ़ेद खरगोश की लाश 'ईथर' की गंध में ऊंघती ज़िन्दगी रोज़ का यह सवाल, 'कहिए! अब कैसे हैं?' रोज़ का यह जवाब-- ठीक हूँ! सिर्फ़ कमज़ोरी थोड़ी खाँसी और तनिक-सा... यहाँ पर... मीठा-मीठा दर्द! इमर्जेंसी-वार्ड की ट्रालियाँ हड़हड़-भड़भड़ करती आपरेशन थियेटर से निकलती हैं- इमर्जेंसी! सैलाइन और रक्त की बोतलों में क़ैद ज़िन्दगी! -रोग-मुक्त, किन्तु बेहोश काया में बूंद-बूंद टपकती रहती है- इमर्जेंसी! सहसा मुख्य द्वार पर ठिठके हुए मौसम और तमाम चुपचाप हवाएँ एक साथ मुख और प्रसन्न शुभकामना के स्वर- इमर्जेंसी! ('धर्मयुग' 26 जून, 1977)

गत मास का साहित्य!!

गत माह, दो बड़े घाव धरती पर हुए, हमने देखा नक्षत्र खचित आकाश से दो बड़े नक्षत्र झरे!! रस के, रंग के-- दो बड़े बूंद ढुलक-ढुलक गए। कानन कुंतला पृथ्वी के दो पुष्प गंधराज सूख गए!! (हमारे चिर नवीन कवि, हमारे नवीन विश्वकवि दोनों एक ही रोग से एक ही माह में- गए आश्चर्य?) तुमने देखा नहीं--सुना नहीं? (भारत में) कानपुर की माटी-माँ, उस दिन लोरी गा-गा कर अपने उस नटखट शिशु को प्यार से सुला रही थी! (रूस में)पिरिदेलकिना गाँव के उस गिरजाघर के पास- एक क्रास... एक मोमबत्ती एक माँ... एक पुत्र... अपूर्व छवि माँ-बेटे की! मिलन की!! ... तुमने देखी? यह जो जीवन-भर उपेक्षित, अवहेलित दमित द्मित्रि करमाज़व के (अर्थात बरीस पस्तेरनाक; अर्थात एक नवीन जयघोष मानव का!)के अन्दर का कवि क्रांतदर्शी-जनयिता, रचयिता (...परिभू: स्वयंभू:...) ले आया एक संवाद आदित्य वर्ण अमृत-पुत्र का : अमृत पर हमारा है जन्मगत अधिकार! तुमने सुना नहीं वह आनंद मंत्र? [आश्चर्य! लाखों टन बर्फ़ के तले भी धड़कता रहा मानव-शिशु का हृत-पिंड? निरंध्र आकाश को छू-छू कर एक गूंगी, गीत की कड़ी- मंडराती रही और अंत में- समस्त सुर-संसार के साथ गूँज उठी! धन्य हम-- मानव!!] बरीस तुमने अपने समकालीन- अभागे मित्रों से पूछा नहीं कि आत्महत्या करके मरने से बेहतर यह मृत्यु हुई या नहीं? [बरीस तुम्हारे आत्महंता मित्रों को तुमने कितना प्यार किया है यह हम जानते हैं!] कल्पना कर सकता हूँ उन अभागे पाठकों की जो एकांत में, मन-ही-मन अपने प्रिय कवि को याद करते हैं- छिप-छिप कर रोते- अआँसू पोंछते हैं; पुण्य बःऊमि रूस पर उन्हें गर्व है जहाँ तुम अवतरे-उनके साथ विश्वास करो, फिर कोई साधक साइबेरिया में साधना करने का व्रत ले रहा है। ...मंत्र गूँज रहा है!! ...बाँस के पोर-पोर को छेदकर फिर कोई चरवाहा बाँसुरी बजा रहा है। कहीं कोई कुमारी माँ किसी अस्तबल के पास चक्कर मार रही है-- देवशिशु को जन्म देने के लिए! संत परम्परा के कवि पंत की साठवीं जन्मतिथि के अवसर पर (कोई पतियावे या मारन धावे मैंने सुना है, मैंने देखा है) पस्तेरनाक ने एक पंक्ति लिख भेजी: "पिंजड़े में बंद असहाय प्राणी मैं सुन रहा हूँ शिकारियों की पगध्वनि... आवाज़! किंतु वह दिन अत्यन्त निकट है जब घृणित-क़दम-अश्लील पशुता पर मंगल-कामना का जयघोष गूँजेगा निकट है वह दिन... हम उस अलौकिक के सामने श्रद्धा मॆं प्रणत हैं।" फिर नवीन ने ज्योति विहग से अनुरोध किया "कवि तुम ऎसी तान सुनाओ!" सौम्य-शांत-पंत मर्मांत में स्तब्ध एक आह्वान..?? हमें विश्वास है गूँजेगा, गूँजेगा!! (रेणु जी ने रूसी कवि बरीस पस्तेरनाक और हिन्दी के हमारे कवि बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' के निधन पर यह कविता 'नूना माँझी' के नाम से 1960 में लिखी थी जो रेणु जी के देहान्त के बाद उनके काग़ज़ों में मिली।

जागो मन के सजग पथिक ओ!

मेरे मन के आसमान में पंख पसारे उड़ते रहते अथक पखेरू प्यारे-प्यारे! मन की मरु मैदान तान से गूँज उठा थकी पड़ी सोई-सूनी नदियाँ जागीं तृण-तरू फिर लह-लह पल्लव दल झूम रहा गुन-गुन स्वर में गाता आया अलि अनुरागी यह कौन मीत अगनित अनुनय से निस दिन किसका नाम उतारे! हौले, हौले दखिन-पवन-नित डोले-डोले द्वारे-द्वारे! बकुल-शिरिष-कचनार आज हैं आकुल माधुरी-मंजरी मंद-मधुर मुस्काई क्रिश्नझड़ा की फुनगी पर अब रही सुलग सेमन वन की ललकी-लहकी प्यासी आगी जागो मन के सजग पथिक ओ! अलस-थकन के हारे-मारे कब से तुम्हें पुकार रहे हैं गीत तुम्हारे इतने सारे!

बहुरूपिया

दुनिया दूषती है हँसती है उँगलियाँ उठा कहती है ... कहकहे कसती है - राम रे राम! क्या पहरावा है क्या चाल-ढाल सबड़-झबड़ आल-जाल-बाल हाल में लिया है भेख? जटा या केश? जनाना-ना-मर्दाना या जन ....... अ... खा... हा... हा.. ही.. ही... मर्द रे मर्द दूषती है दुनिया मानो दुनिया मेरी बीवी हो-पहरावे-ओढ़ावे चाल-ढाल उसकी रुचि, पसंद के अनुसार या रुचि का सजाया-सँवारा पुतुल मात्र, मैं मेरा पुरुष बहुरूपिया। (24 फरवरी 1960-बुधवार)

मँगरू मियाँ के नए जोगीड़े

"मँगरू मियाँ के नए जोगीड़े" "ताक धिन्ना धिन, धिन्नक तिन्ना, ताक धिनाधिन धिन्नक तिन्नक । जोगीजी सर - र - र, जोगीजी सर - र - र -- -- एक रात में महल बनाया, दूसरे दिन फुलवारी तीसरी रात में मोटर मारा, जिनगी सुफल हमारी जोगीजी एक बात में, जोगीजी एक बात में, जोगीजी भेद बताना., जोगीजी कैसे -- कैसे ? बाप. हमारा पुलिस सिपाही, बेटा है पटवारी हाल साल में बना सुराजी, तीनों पुश्त सुधारी जोगीजी सर - र - र ---- रूपया जोड़ा, पैसा जोड़ा, जोड़ी मैंने रेजगारी जिसने मेरा भंडा फोड़ा, उसकी रोजी मारी जोगीजी सर - र - र -- - खादी पहनो, चाँदी काटो, रहे हाथ में झोली दिन दहाड़े करो डकैती, बोल सुदेशी बोली जोगीजी सर - र - र ------

मिनिस्टर मंगरू

'कहाँ गायब थे मंगरू?'-किसी ने चुपके से पूछा। वे बोले- यार, गुमनामियाँ जाहिल मिनिस्टर था। बताया काम अपने महकमे का तानकर सीना- कि मक्खी हाँकता था सबके छोए के कनस्टर का। सदा रखते हैं करके नोट सब प्रोग्राम मेरा भी, कि कब सोया रहूंगा औ' कहाँ जलपान खाऊंगा। कहाँ 'परमिट' बेचूंगा, कहाँ भाषण हमारा है, कहाँ पर दीन-दुखियों के लिए आँसू बहाऊंगा। 'सुना है जाँच होगी मामले की?' -पूछते हैं सब ज़रा गम्भीर होकर, मुँह बनाकर बुदबुदाता हूँ! मुझे मालूम हैं कुछ गुर निराले दाग धोने के, 'अंहिसा लाउंड्री' में रोज़ मैं कपड़े धुलाता हूँ। ('नई दिशा' 9 अगस्त, 1949 अंक में प्रकाशित)

मेरा मीत सनीचर

पद्य नहीं यह, तुकबंदी भी नहीं, कथा सच्ची है कविता-जैसी लगे भले ही, ठाठ गद्य का ही है। बहुत दिनों के बाद गया था, उन गांवों की ओर खिल-खिल कर हँसते क्षण अब भी, जहाँ मधुर बचपन के किंतु वहां भी देखा सबकुछ अब बदला-बदला-सा इसीलिए कुछ भारी ही मन लेकर लौट रहा था। लंबी सीटी देकर गाड़ी खुलने ही वाली थी तभी किसी ने प्लेटफार्म से लंबी हांक लगाई, "अरे फनीसरा!" सुनकर मेरी जान निकल आई थी, और उधर बाहर पुकारनेवाला लपक पड़ा था चलती गाड़ी का हत्था धर झटपट लटक गया था हांक लगाता लेकर मेरा नाम पुनः चिल्लाया— "अरे फनीसरा, अब क्यों तू हम सबको पहचानेगा!" गिर ही पड़ता, अगर हाथ धर उसे न लेता खींच। अंदर आया, तब मैंने उसकी सूरत पहचानी। "अरे सनिचरा!" कहकर मैं सहसा ही किलक पड़ा था। बचपन का वह यार हमारा ज़रा नहीं बदला था— मोटी अकल-सकल-सूरत, भोंपे-सी बोली उसकी, तनिक और मोटी, भोंड़ी, कर्कश-सी मुझे लगी थी। पढ़ने-लिखने में विद्यालय का अव्वल भुसगोल सब दिन खाकर मार बिगड़ता चेहरे का भूगोल वही सनिचरा? किंतु तभी मेरे मुँह से निकला था— “कुशल-क्षेम सब कहो, सनिचर भाई तुम कैसे हो?” बोला था वह लगा ठहाका- “हमरी क्या पूछो हो? हम बूढ़े हो चले दोस्त, तुम जैसे के तैसे हो!” बात लोक कर अपनी बात सुनाने का वह रोग नहीं गया उसका अब भी, मैंने अचरज से देखा मुझे देखकर इतना खुश तो कोई नहीं हुआ था! मौका मिलते ही उसने बातों की डोरी पकड़ी अब फिर कौन भला उसकी गाड़ी को रोक सकेगा? “सुना बहुत पोथी-पत्तर लिख करके हुए बड़े हो, नाम तुम्हारा फिलिम देखने वाले भी लेते हैं और गाँव की 'राय बरेली' में किताब आई है 'मेला चल' क्या है? यह तुमरी ही लिखी हुई है? तुम न अगर लिखते तो लिखता ऐसा था फिर कौन? बोर्डिंग से हर रात भागकर मेला देखा करता था इसीलिए अब सबको, मेला चलने को कहते हो मैंने समझा ठीक, काम यह तुम ही कर सकते हो। अरे, याद है वह नाटक जिसमें तुम कृशन बने थे दुर्योधन के मृत सैनिक का 'पाट' मुझे करना था ऐन समय पर पाट भूल उठ पड़ा और बोला था— 'नहीं रहेंगे हम कौरव संग, ले लो अपना पाट, सभी मुझे जीते-जी ले जायेंगे मुर्दा-घाट ! आँख मूँद सह ले अब ऐसा मुरख नहीं सनिचरा! कौरव दल में मुझे ठेल, अपने बन गया फनिसरा किशुन कन्हैया चाकर सुदरसनधारी सीरी भगवान! रक्खो अपना नाटक थेटर हम धरते हैं कान जीते-जी हम नहीं करेंगे यह मुर्दे का काम!' और तभी दुरनाचारज ने फेंका ताम खड़ाम बाल-बाल बचकर मैंने उसको ललकारा था— 'मास्टर साहब ! क्लास नहीं, यह नाटक का स्टेज यहाँ मरा सैनिक भी उठ तलवार चला सकता है!' असल शिष्य से गुरु को अब तक पाला नहीं पड़ा था याद तुम्हें होगा ही आखिर 'पट्टाछेप' हुआ था!” “खूब याद है!”— मैं बोला— “वह घटना नाटक वाली लिखकर मैंने ब्राडकास्ट कर पैसे प्राप्त किये हैं उस दिन अंदर हँसते-हँसते, हम सब थे बेहाल दर्शक समझ रहे थे लेकिन, देखो किया कमाल पाट नया कैसा रचकर के डटकर खेल रहा है भीतर से इसका ज़रूर पांडव से मेल रहा है।” मैंने कहा— “आज भी जी भरकर मन में हँसता हूँ आती है जब याद तुम्हारी, याद बहुत आती है!” वह बोला—“चस्का नाटक का अब भी लगा हुआ है जहाँ कहीं हो रहा डरामा, वहीं दौड़ जाता हूँ लेकिन भाई कहाँ बात वह, अपना हाय ज़माना! पाट द्रोपदी का करती है अब तो खूद ज़नाना!” नाटक से फिर बात दीन-दुनिया की ओर मुड़ी तो उसके मुखड़े पर छन-भर मायूसी फ़ैल गई थी लंबी सांस छोड़ बोला था, “सब फांकी है यार सभी चीज़ में यहाँ मिलावट खांटी कहीं नहीं है कुछ भी नहीं पियोर प्यार भी खोटा ही चलता है गांवों में भी अब बिलायती मुर्गी बोल रही है!” मैंने पूछा—“खेती-बारी या करते हो धंधा? बही-रजिस्टर कागज़-पत्तर लेकर के झोली में कहाँ चले हो यार सनीचर? यह पहले बतलाओ!” “खेती-बारी कहाँ कर सका” वह उदास हो बोला— “मिडिल फेल हूँ, मगर लाज पढुआ की तो रखनी थी अपना था वह दोस्त पुराना फुटबॉलर जोगिन्दर नामी ठेकेदार हो गया है अब बड़ा धुरंधर काम उसी ने दिया, काम क्या समझो बस आराम सुबह-शाम सब मजदूरों के ले-लेकर के नाम भरता हूँ हाजिरी बही ‘हाज़िर बाबू’ सुन करके इसीलिये सब मुझे हाजिरी बाबू ही कहते हैं। भले भाग से मिले दोस्त तो एक अरज करता हूँ सुना सनीमा नाटक थेटर वाले मित्र तुम्हारे बहुत बने हैं बम्बई, दिल्ली, कलकत्ता में अगर किसी से कहकर कोई पाट दिला दो एक बार भी!” तभी अचानक गड़गड़ करती गाड़ी पुल पर दौड़ी “छूट गया कुरसेला टीशन, पीछे ही!” वह चौका, “अच्छा कोई बात नहीं ‘थट्टी डाउन’ धर लेंगे ऐन हाजिरी के टाइम पर साईट पर पहुंचेंगे कहा-सुना सब माफ करोगे, लेकिन याद रखोगे! बचपन के सब मित्र तुम्हारे, सदा याद करते हैं गाँव छोड़कर चले गए हो शहर, मगर अब भी तुम सचमुच गंवई हो, सहरी तो नहीं हुए हो! इससे बढ़कर और भला क्या हो सकती है बात अब भी मन में बसा हुआ है इन गाँवों का प्यार!” इससे आगे एक शब्द भी नहीं सका था बोल गला भर गया, दोनों आँखें डब-डब भर आईं थीं मेरा भी था वही हाल, मुश्किल से बोल सका था “ज़ल्दी ही आऊंगा फिर” पर आँखें बरस पड़ी थीं। पद्य नहीं यह, तुकबंदी भी नहीं, किंतु जो भी हो दर्द नहीं झूठा जो अब तक मन में पाल रहा हूँ। (राय बरेली=लाइब्रेरी, मेला चल=मैला आँचल)

यह फागुनी हवा

यह फागुनी हवा मेरे दर्द की दवा ले आई...ई...ई...ई मेरे दर्द की दवा! आंगन ऽ बोले कागा पिछवाड़े कूकती कोयलिया मुझे दिल से दुआ देती आई कारी कोयलिया-या मेरे दर्द की दवा ले के आई-ई-दर्द की दवा! वन-वन गुन-गुन बोले भौंरा मेरे अंग-अंग झनन बोले मृदंग मन-- मीठी मुरलिया! यह फागुनी हवा मेरे दर्द की दवा ले के आई कारी कोयलिया! अग-जग अंगड़ाई लेकर जागा भागा भय-भरम का भूत दूत नूतन युग का आया गाता गीत नित्य नया यह फागुनी हवा...! (रचनाकाल: 1956 तथा 'सारिका' के 1 अप्रैल 1979 के अंक में प्रकाशित)

साजन! होली आई है!

साजन! होली आई है! सुख से हँसना जी भर गाना मस्ती से मन को बहलाना पर्व हो गया आज- साजन! होली आई है! हँसाने हमको आई है! साजन! होली आई है! इसी बहाने क्षण भर गा लें दुखमय जीवन को बहला लें ले मस्ती की आग- साजन! होली आई है! जलाने जग को आई है! साजन! होली आई है! रंग उड़ाती मधु बरसाती कण-कण में यौवन बिखराती, ऋतु वसंत का राज- लेकर होली आई है! जिलाने हमको आई है! साजन! होली आई है! खूनी और बर्बर लड़कर-मरकर- मधकर नर-शोणित का सागर पा न सका है आज- सुधा वह हमने पाई है! साजन! होली आई है! साजन! होली आई है! यौवन की जय! जीवन की लय! गूँज रहा है मोहक मधुमय उड़ते रंग-गुलाल मस्ती जग में छाई है साजन! होली आई है! (विश्वमित्र, 26 फरवरी, 1945)

सुंदरियो!

सुंदरियो-यो-यो हो-हो अपनी-अपनी छातियों पर दुद्धी फूल के झुके डाल लो ! नाच रोको नहीं। बाहर से आए हुए इस परदेशी का जी साफ नहीं। इसकी आँखों में कोई आँखें न डालना। यह ‘पचाई’ नहीं बोतल का दारू पीता है। सुंदरियो जी खोलकर हँसकर मत मोतियों की वर्षा करना काम-पीड़ित इस भले आदमी को विष-भरी हँसी से जलाओ। यों, आदमी यह अच्छा है नाच देखना सीखना चाहता है।

अग्रदूत

‘हमारा सब कुछ चला गया!’ —रो उठा सर्वहारा! बांग्ला देश के आगत एक जन ‘तुम्हारा सब कुछ चला गया?’ नहीं-नहीं-नहीं, कुछ भी नहीं गया विश्वास करो, कुछ भी नहीं गया विवेक तो बचा हुआ है न —जानते हो न? तब, सब कुछ है नीति मानते हो न? तब, सब कुछ है देश की ‘माँ’ के रूप में देखा है न? तुम्हारा सब सुरक्षित है जीवितों की तरह जीना चाहा था न? तब, तुम्हें कौन मार सकता है? अन्याय के दिव्य प्रतिवाद से ही जीवन जलता है प्रलोभन को जीत लिया है— और क्या चाहिए? देश के लिए प्राण देने को ही प्रस्तुत तुम्हीं तो हो अग्रदूत— फिर भी कहते हो— ‘सब कुछ चला गया हमारा!’ बोलो-बोलो देश माँ मेरी है— हम हैं उसके सपूत हम हैं अजेय हम हैं अग्रदूत।

निवेदन

फिर बासी आँसुओं की फुहार में नहा आई पुजारिन, सवेरे-सवेरे— हरसिंगार तले! पूजा के साज सजे, मंदिर की सीढ़ियों पर पदचाप बजे! देवता जगे, (होश, देवता का आज दुरुस्त हुआ सवेरे-सवेरे!) रिक्त पद्म आसन! पाद पद्म में झुकती गर्दन को, बाहुओं में समेटे, बोल सके! “पूजा हो चुकी तुम्हारी—पहले ही सवेरे-सवेरे! हरसिंगार तले!” तुम पर निवेदित इन फूलों से पूछो! घुँघराली लटों की लहरों में क़ैद थर-थर काँप रहे दो जीवित फूल! देवि! ...निवेदन है! निवेदन है!

मुझे तुम मिले!

मुझे तुम मिले! मृतक-प्राण में शक्ति-संचार कर; निरंतर रहे पूज्य, चैतन्य भर! पराधीनता—पाप-पंकिल धुले! मुझे तुम मिले! रहा सूर्य स्वातंत्र्य का हो उदय! हुआ कर्मपथ पूर्ण आलोकमय! युगों के घुले आज बंधन खुले! मुझे तुम मिले!

खड्गहस्त!

दे दो हमें अन्न मुट्ठी-भर औ’ थोड़ा-सा प्यार! भूखा तन के, प्यासे मन से युग-युग से लड़ते जीवन से ऊब चुके हैं हम बंधन से जग के तथाकथित संयम से भीख नहीं, हम माँग रहे हैं अब अपना अधिकार! श्रम-बल और दिमाग़ खपावें, तुम भोगो, हम भिक्षा पावें जाति-धर्म-धन के पचड़े में प्यार नहीं हम करने पावे मुँह की रोटी, मन की रानी, छीन बने सरदार! रक्खो अपना धरम-नियम अब अर्थशास्त्र, क़ानून ग़लत सब डोल रही है नींव तुम्हारी वर्ग हमारा जाग चुका अब हमें बसना है फिर से अपना उजड़ा संसार दे दो हमें अन्न मुट्ठी-भर औ’ थोड़ा-सा प्यार!

एक संभाव्य भूमिका

आपने दस वर्ष हमें और दिए बड़ी अनुकंपा की! हम नतशिर हैं! हममे तो आस्था है : कृतज्ञ होते हमें डर नहीं लगता कि उखड़ न जाएँ कहीं! दस वर्ष और! पूरी एक पीढ़ी! कौन सत्य अविकल रूप में जी सका है अधिक? अवश्य आप हँस ले : हँसकर देखें फिर साक्ष्य इतिहास का जिसकी दुहाई आप देते हैं। बुद्ध के महाभिनिष्क्रमण को कितने हुए थे दिन ठैर महासभा जब जुटी ये खोजने कि सत्य तथागत का कौन-कौन मत-संप्रदायों में बिला गया? और ईसा— (जिनका कि पटशिष्य ने मरने से कुछ क्षण पूर्व ही था कर दिया प्रत्याख्यान!) जिस मनुपुत्र के लिए थे शूल [सूली] पर चढ़े— उसे जब होश हुआ सत्य उनका खोजने का तब कोई चारा ही उसका न चला इसके सिवा कि वह खड्गहस्त दसियों शताब्दियों तक अपने पड़ोसियों के गले काटता चले (प्यार करो अपने पड़ोसियों को आत्मवत्— कहा था मसीहा ने!) ‘सत्य क्या है?’ बेसिनिन में पानी मँगा लीजिए सूली का सुनाके हुकुम हाथ धोए जाएँगे! बुद्ध : ईसा : दूर हैं जिसका थपेड़ा हमको न लगे वह कैसा इतिहास है? ठीक है! आपका जो ‘गांधीयन’ सत्य है उसका क्या यही सात-आठ वर्ष पहले गांधी पहचानते थे? तुलना नहीं है ये। हमको चर्राया नहीं शौक़ मसीहाई का। सत्य का सुरभिपूर्ण स्पर्श हमें मिल जाए— क्षण-भर : एक क्षण उसके आलोक से संपृक्त हो विभोर हम हो सकें।

नूतन वर्षाभिनंदन

नूतन का अभिनंदन हो प्रेम-पुलकमय जन-जन हो! नव-स्फूर्ति भर दे नव-चेतन टूट पड़ें जड़ता के बंधन; शुद्ध, स्वतंत्र वायुमंडल में निर्मल तन, निर्भय मन हो! प्रेम-पुलकमय जन-जन हो, नूतन का अभिनंदन हो! प्रति अंतर हो पुलकित-हुलसित प्रेम-दिए जल उठें सुवासित जीवन का क्षण-क्षण हो ज्योतित, शिवता का आराधन हो! प्रेम-पुलकमय प्रति जन हो, नूतन का अभिनंदन हो!

कौन तुम वीणा बजाते?

कौन तुम वीणा बजाते? कौन उर की तंत्रियों पर तुम अनश्वर गान गाते?... सुन रहा है यह मन अचंचल प्रिय तुम्हारा स्वर मनोहर विश्वमोहन रागिनी से प्राणदायक द्रव रहा झर ध्यान हो तन्मय बनाते सकल मन के दु:ख नसाते कौन तुम विष-वासना को प्रेममय अमृत पिलाते? कौन तुम वीणा बजाते? बन गए वरदान— जीवन के सकल अभिशाप तुझको! आत्म-कल्याणी बने दु:ख,— वेदना, परिताप मुझको! तुम ‘अहं’ को हो बुलाते ‘द्वैत’ जीवन का मिटाते कौन तुम अमरत्व का संदेश हो प्रतिपल सुनाते! कौन तुम वीणा बजाते?

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