पंजाबी कविता हिंदी में : गुरभजन गिल

अनुवादक : प्रदीप सिंह



1. दर्दनामा

बीता दिन मुबारक नहीं था रक्तरंजित था टुकड़े टुकड़े बोटी बोटी फ़र्ज़ थे सारी सड़क पर फैले टूटे दिये बिखरे थे आस-उम्मीदों वाले जरूरतों खातिर कच्चे आँगनों ने भेजा था बेटों को करने कमाई ये क्यों घर को लाशें आईं सफेद दुपट्टे देते दुहाई मेरे हाथ में अमन का परचम सच पूछो तो डोल रहा है जहरी नाग जगा अचानक रूह के अंदर बैठा था जो बा-मुश्किल सुलाया था मैंने जाग गया है जहर उगलता ये जहरी क्यों मरता नहीं है हदें-सरहदें सारी आदमख़ोर चुड़ैलें ज्यों जंग और गरीबी सगी हैं दोनों बहनें बार बार ये खेलें होली कुर्सी और सरकारें बोलें एक ही बोली सीधे मुंह न कोई उतर खा रही हैं हमारे पुत्र लाश लपेटने के काम आते कौमी झंडे हुकुम हुकुमत व्यस्त खाने में हलवे-पूरी, अंडे ओ धरती के बेटो-बेटियो आदम की संतानो पूरे आलम को चीत्कारों में छुपा दर्द सुनाओ और समझा दो रावी और झेलम का पानी उकताया सुन सुन दर्द कहानी इधर या उधर अब लाशों के अंबार न लगाओ नफरत की आग सदा जलाती सपने सुनहरे सहेजे चूल्हों में घास उगाती करे बंद दरवाजे ये मारक हथियार फाड़ते हमारे प्यारे बस्ते बम्ब-बंदूके खा रही प्यार, चौरस्ते कुचले सुर्ख गुलाबों को न समझें हाथी मस्ते ओ बंजारों! लाशों वालो आँख से काली ऐनक हटाओ कैसे छाती पीट कर रोती माएं, बहनें, बेटियां सूखा रहे हो क्यों सबका हिया तड़क रहे रंग-रँगीले चूड़े और कलीरे लिपट तिरंगे में सोए नींद अटूट जिस बहन के वीरे सरहदों के आर-पार ये आवाज़ लगाओ जात-धर्म के पट्टे हटाओ बरखुरदारो, अपना भविष्य खुद सँवारो अंधे बहरे तख़्त-ताज़ तक ये आवाज़ पहुँचाओ श्मशानों की जलती मिट्टी पुकारे धरती को न लम्बी सी कोई कब्र बनाओ होश में आओ! बाग उजाड़ने वालो सोचो! बच्चों के मुंह चूरी की जगह जलते सुर्ख अंगार न डालो।

2. शीशा

दिन निकलते ही लोग अब नहीं पूछते अपने दुख-सुख का इलाज अपना मुंह धोने से पहले पूछते हैं कश्मीर का क्या हुआ? भूल गए हैं सब हमारा तुम्हारा क्या हुआ? सट्टेबाज से दिहाड़ीदार तक व्यस्त हैं सभी मंडियों के भाव जानने में। रसूल हमजातोव ने सही कहा था बच्चे की सुन्नत के लिए बत्तख़ का पंख बहुत जरूरी है। पर आप बत्तख़ के पंख से सुन्नत नहीं कर सकते। उसके लिए चाहिए उस्तरा। किसी ने पूछा फिर बत्तख़ का पंख किस काम आएगा? उसने कहा बच्चे का ध्यान बंटाने के लिए। पर दोस्तों इसे कविता न समझना ये शीशा है जिसमे मुझे आपको हम सब को देखना बनता है जनाब।

3. वो पूछते हैं अड़ियल घोड़ा कैसा होता है...

वो पूछते हैं ये अड़ियल घोड़ा कैसे होते हैं? मैंने कहा, जिसको पाँच साल के लिए वोट देते हो। चने बादाम और कितना कुछ और-और खिलाते हो। इस भ्रम से कि वो हमारा फँसा पहिया कीचड़ से निकालेगा कभी न कभी। पर वो बहानों से हमें टरकाता जाता है सवाल करते हैं तो नाक फुलाता है। दुलत्ती मारता है। वो दर्पण नहीं देखता बुरा-भला बोलता है नकली नस्ल का। जो उसे मुँह चिढ़ाता है उससे आँख नहीं मिलाता आँख दिखाता है आपसे ही पूछता है कौन ले गया आपके स्कूल हस्पताल एवं और जरूरी सामान। कौन ले गया चूल्हों की आग? इन परातों में कर्ज़ का आटा क्यों गूँथता है। कहाँ गया साफ जल? हमारे पास हैं सभी जवाब जवाब सीधा है कि यह जो साथ लिए फिरते हो अपनी काली करतूतों की रखवाली करने वालों की बारात इसका खर्च हमारी जेबें उठाती हैं। अच्छे देशों के बुद्धिमान शासक इन्हीं पैसों को बदलते हैं हस्पतालों की छतों में आँखों की दवा-दारु बनाते इनसे ही रखते जल पवित्र। ये कहते तो हैं हर-हर गंगे पर असल में वो हमसे वोट हैं माँगे। हम तो फिर नँगे के नँगे, मुर्गे की तरह सीखों पर टँगे। फिर नारे जुमले रंगदार अगर करो सवाल तो भाग जाता है बदकार करके हमें हैरान-परेशान। कहे, सुनने का वक़्त नहीं चुनाव का है समय अभी कितने ही गाँव नापने हैं। परिवारवाद के खिलाफ बोलता सारा परिवार साथ ही होता बन्दूकों के साए में आटे का दिया घूमता फिरता गली-गली हमें तुम्हें कुचलता। घूमते-फिरते मेला देखने वाले आया राम गया राम रातों रात जुबान बदल लेते हैं। बहुत याद आ रहे हैं मुझे इस वक़्त प्रोफेसर रतन सिंह इस नस्ल को कहते थे अक्सर हरामजादे ईमान के बड़े पक्के होते हैं। ईमान छोड़ सकते हैं हरामजादगी नहीं। अब भी पूछते हो ये अड़ियल घोड़ा कैसा होता है? कीर्तनिये गा रहे हैं बेड़ा बंध ना सक्यो बंधन की बेला।। भर सरवर जब उछले तब तरण दुहेला।। इसको ही वक़्त सम्भालना कहते हैं। इससे पहले कि ये घोड़ा सब कुचल जाए इसे नकेल डालो और पूछो तेरा मुँह अठाहरवीं सदी की तरफ क्यों है?

4. बहुत याद आती है लालटेन

कच्चे कमरों में बहुत कुछ था रौशनी के बिना सूरज छिपता तो संध्या समय मन डूबता। प्रकाश तो ख़र्च हो जाता था शाम के खेल में। खाली पड़े खेतों में खिदो-खुंडी के दौर चलते गोबर-कूड़े में खिदो(गेंद) खोती तो शिकारियों की तरह ढूंढते फिरते। घर आते तो माँ कहती पहले नहाओ स्कूल का निपटाओ खाना तभी मिलेगा। दिए की लौ झूमती पतंगे नाचते इर्द-गिर्द। एक ही दिया रसोई में जलता। चौंका-बर्तन समेटकर ही दिया मिलता कांपता-कांपता। नींद आँखे कब्जा डेरे डाल लेती शब्द आगे-आगे, मैं पीछे-पीछे। दिया दुश्मन सा लगता। घर में मेज़ नहीं थी ऊंची सेल्फ पर जगमगाता ज्ञान दूत यमदूत लगता नींद का बैरी। दिए को बढ़ा माँ कहती अब सो जा, सुबह उठ जाना पशु निआरने के समय। फिर जब घर में लालटेन आई घर रौशन हो उठा पिता जी कहते अब तो चींटी भी चलती दिखती है। प्रकाश में किताबें कहती आजा बातें करें पन्ना-पन्ना शब्द-शब्द पंक्ति दर पंक्ति। मिट्टी का तेल जलता तो काला धुँआ नांक में घुसता कड़वा-कसैला सा। चिमनी में कालिख जमती तो दादी जी चुन्नी के फ़टे कपड़े से साफ करते। धुंधले अक्षर जगमग करते। नूर-सरोवर में सपने तैरते। कच्चे आँगन में इच्छाएं उगती हिम्मत के पानी से उन्हें माँ-बाप सींचते बड़े बहन भाई पक्के दूध को विश्वास जामण लगा जमाते। लालटेन ने मेरा संसार बदल दिया। इसके आसपास जगने से मुझे सुंदर सपने आते। सोए को फिर जगाते। प्रकाश दोस्त बन गया लालटेन के आने से। बिजली आई तो पिता जी ने दूर खड़े हो कर डंडे से जगाई किसी ने कहा था हरनाम सिंह पास मत जाना पकड़ लेती है ये डायन। तब पता ही नहीं था कि अंधेरा कितना शातिर है इंसान के रूप में आता है भोले लोगों को डराता है। प्रकाश नहीं सहता भ्रमजाल फ़ैलता है। बिजली के लट्टू से कितना कुछ निकला ग़ज़ल दर ग़ज़ल रौशनी की लड़ी। इसने ही हमारी उंगलियां पकड़ी माथे पर गहरी लकीरें जड़ी। अब हर कमरे में दो-दो तीन-तीन ट्यूबें जगती, बल्ब जगमगाते पर ख्वाब नहीं आते। कंक्रीट कितना बेरहम जंगल है कमरों में कैद कर देता है सितारों से नहीं मिलने देता लालटेन से कितना कुछ मिला मिलाया छीन है लेता संयुक्त-परिवार सांझे आदर्श और सपने। छतों से जुड़ी छतें बातें हुंगारे, टिमटिमाते तारे। बड़ा जालिम है रूखा सूखा संसार। कच्चे आँगन, दिए लालटेनें और भी बहुत कुछ भुला देता है। सपने जड़ से सूखा देता है। धरती आकाश भुला देता है। बिल्कुल खाली कर देता है सबकुछ होते हुए भी। (खिदो-खुंडी=पंजाब का एक लोक खेल जिसका विकसित रूप हॉकी है)

5. दीपिका पादुकोण के JNU के जख्मियों को मिलने पर

अगर तुम सिनेमा स्क्रीन से उतर हक़ सच इंसाफ़ के लिए लड़ती बंगाल की बेटी 'आईशी घोष' का यूनिवर्सिटी जाकर ज़ख़्मी माथा नहीं चूमती तो मुझे भ्रम रह जाता कि माँ-बाप द्वारा रखे नाम निरर्थक होते हैं। दीपिका! जलती लौ जैसी! तुम सच में प्रकाश पुत्री हो। तुम्हारा निहत्थे बच्चों के पास जाना हमदर्द बन उठाना-बैठना उस विश्वास की झलक है जो कहीं खो रहा है दिन-बदिन ऐसा लगा! मंडी में सबकुछ बिकाऊ नहीं। सर्दियों के दिन हैं बाजारों में मूंगफली के ढेर लगे हैं धड़ा-धड़ तुलते बिकते। हे महंगे बादामों सी बेटी! मंडी का माल न बनने का शुक्रिया। 'आईशी घोष' के माथे के ज़ख्म तुम्हारे चूमते ही सूखने लगे हैं। अनकहा नारा अंबर तक गूंज उठा है चहुँ ओर। "त्रिशूलों, तलवारों, चाकुओं के जमघट में घिरे हम अकेले नहीं हैं। बहुत लोग हैं। अकेले नहीं हैं जंगल में।"

6. काला टीका

उनके माथों पर ज़हर बुझे त्रिशूल थे। हाथों में नश्तर, खंज़र, किरचें और बरछे दिलों में विषैले पौधे थे। विश्वविद्यालय की दीवार फांद कर नहीं अतिथियों की तरह आए आमंत्रित नकाबपोश। वे पढ़ने-पढ़ाने वाले पुस्तकें लिखने-लिखाने वाले दिशा देखने-दिखाने वाले रौशन चिरागों पर झपटे। रात ने ये तांडव आँखों से देखा लहूलुहान था चाँद आंखें बंद थी तारों की मटमैली सी सुबह उगता सूरज शर्मिंदा था दिन के माथे काला टीका देख कर। आज उदास हैं पुस्तकें सुबकते हैं हर्फ़ ज़ख्मी माथों पर पट्टियां हैं और इस माहौल में छिपती फिरती है मेरी कविता शब्दों के पीछे। बेबस परिंदे सी फड़फड़ाती ढूंढती है हमनस्ल उडार पर वो आर न पार जाने कहां गए सब पवनसवार। ये तो महज़ फ़िल्म का ट्रेलर है पूरी फ़िल्म निकट भविष्य में देख सकोगे।

7. पत्थर! तू भगवान बनकर

पत्थर! तू भगवान बनकर मंदिर में जम जाएगा। तेरी पूजा अर्चना होगी, मेरी हाथ दुख ही आएगा। शुद्र था मैं आज भी शुद्र, तुझे तराशने वाला मैं हे भगवान! पुजारी मुझे फिर भी अछूत कह जाएगा।

8. बिगड़ता जाता वातावरण

बिगड़ता जाता वातावरण आ जगाएं कुछ विश्वास बहुत ज़रूरी है अब तो उगे खुशियां बाँटती आस मन परदेसी डोलता जाए घर न लौटे दिन-दिन बढ़ता जाए कैसा अजब बनवास अपनी जमीन पराई लगे है नज़र भी पथराई लगे है कंक्रीट के जंगल में लगे है नहीं किसी का वास चतुर करे चतुराई प्यार दिखाए जिस्म पुचकारे मौका पाकर ऐसा डसे है रूह ढोए है अपनी लाश उपजाऊ धरा हुई है बंजर उजड़े सपनों के बागीचे पेड़ों से लटकते आँसू निगल लिया है सल्फॉस शैतान की शैतानी देखो पालतू किया विज्ञान गमले में उगाया उसने बिन हड्डियों का मास खुद को ऊंचा कहने वाली अमरबेल ये फैलती जाए ऐसे तो मिट जाएगा अपना गंगा-जमुनी इतिहास

9. भट्ठे में तपती माँ

ईंटें नहीं भट्ठे में माँ तपती है दिन रात सिर पर परिवार का बोझ ढोती बच्चा नहीं पीठ पर पूरे देश का बाँधे भार पैरों में बाँध भविष्य और वर्तमान सुबह से शाम तक चलती जाती है लगातार उसके लिए कोई सड़क कहीं नहीं जाती सिर्फ झुग्गी से कच्ची ईंटों के सांचे तक आती है और वहाँ से जलते आवे तक बीच में कोई मील पत्थर नहीं है सिर्फ खड्डे हैं अड़चनें या कंकड़ पत्थर हैं किरक है बहुत सारी बेरोक उड़कर गुँथे हुए आटे में गिरती है भट्ठे की चिमनियों से धुँआ नहीं मजबूरों की आह निकलती हैं सपनें, उमंगे, और तरंगे हैं रोज बुझती जाती हैं जो भट्ठे की लकड़ियों के साथ बहुत मुश्किल है ज़िंदगी का पन्ना पन्ना पलटना किताबें कहीं आस-पास भी नहीं हैं हर पुस्तक में दर्दनामा है एक जैसे भ्रमित अक्षर पढ़ते-पढ़ाते हैं घर पैदा हुए कोई शब्दकोष कभी नहीं बताएगा कि सिर पर ईंटें ढोती औरत भी माँ है कपड़े में लटकता बच्चा चन्द्रयान नहीं, धरती है इसके दर्द का थाह क्यों नहीं हे स्वपनसाज़ भ्रम था कि तुम मुक्तिदाता हो गड्ढे से निकालोगे फँसा पहिया पर आप भी ज़िंदाबाद मुर्दाबाद के दलदल में फंसे हो 22 मंजी वालो नित नए गुटबाज़ो एक बस में कभी न बैठने वाले दिल्ली के सवारो अपना अपना घोड़ा दौड़ाते खूँटे से बंधे शाहस्वारो पर हमारे सिर पे वही बोझ है बेशुमार तिहाई सदी गुजार यहाँ पहुँचे हार के मज़दूर का कोई दिन नहीं दिहाड़ी होती है टूट जाए तो खाली टीन रोता है परात सिसकती है तवा ठंडी आहें भरता है दिहाड़ी टूटते आदमी टूट जाता है खाली पेट नींद से आँखें पूछती हैं कब आएगी? जल्दी आ सुबह फिर दिहाड़ी पर जाना है दिहाड़ी नहीं मज़दूर का सपना टूटता है जनाब! कवि महाराज मित्र प्यारों को दर्दरानियों का हाल बताना कहीं कविता लिखकर ही न बैठ जाना तब क्या करोगे जब वक़्त माँगेगा हिसाब।

10. ज्ञानी पिंदरपाल सिंह जी को अपने खेतों में घूमते देखकर

धरती पहचाने मेरे आँगन ये तो मेरा बेटा आया गुरू का शब्द सदा साथ है जिसने सारे जग में बताया सच्चे सौदे वाली गेहूँ पिसी, गूँथी और पकाई पर तेरी लौ न टूटी जीता रहे तूँ मेरे बेटे

11. डार्विन झूठ बोलता है

हम विकसित बंदर से नहीं भेड़ से हुए हैं भेड़ थे भेड़ हैं और भेड़ रहेंगे जब तक हमें हमारी ऊन की कीमत पता नहीं चलती। हमें चराने वाला ही हमें काटता है। बंदर तो बाज़ार में खरीद-फरोख्त करता कारोबारी है। बिना कुछ खर्च किए मुनाफे का अधिकारी है। हम दुश्मन नहीं पहचानते हमारी सोच मरी है। डार्विन से कहो! अपने विकासवादी सिद्धांत की फिर समीक्षा करे! कि वक़्त बदल गया है।

12. जाग रही है माँ अभी

सो गई है सारी धरा रुक गए बहते दरिया बात हो गई बेजवाब दूर कहीं टिटहरी बोलती है चुप गलियों में पसरी है आदम पद्चाप जाग रही है माँ अभी चूल्हा-चौंका साज-संभाल के दूध को जामण लगा टोकरे नीचे रख आई है कुत्ते-बिल्लियों का है डर कहीं पी न जाएं वे लालटेन की रौशनी में किताब के पन्नों में जाने क्या देखती है शायद बेटे की भाग्य रेखा बेटी के अगले घर का नक्शा मायके की सुख-शांति ससुराल की खुशहाली के विस्तृत लेख अनपढ़ होकर भी कितना कुछ पढ़ती जाती है चश्में में से सारे संसार से रिश्ता जोड़ती पेंसिल के निशानों को ध्यान से बाँचती पढ़े हुए को परखती-जाँचती जाग रही है माँ अभी। दादी बनकर भी जागती है अब भी आकाश के तारे नहीं देखती अक्षरों में आँख के तारों के सितारे पहचान रही है माँ जाग रही है अभी। जिन घरों की सो जाती माएँ उन घरों को जगाने वाला कोई नहीं होता ईश्वर भी नहीं माँ ईश्वर से बड़ा ईश्वर है पृथ्वी सा बड़ा दिल अंबर से बड़ी नजर सागर से गहरी आस्था हवाओं से तेज उड़ान चंदन के बाग की महकती बहार है पिता तो राजा है घर की छोटी-मोटी जरूरतों से बेख़बर खुद को हुक्मरां समझता है वैसा ही लापरवाह बच्चों के बस्ते से बेख़बर शाहंशाह-ए-हिंद देस-परदेस की चिंताओं में घुलता जाए गोटियों से खेलता उल्टी सीधी चालें चलता है तिकड़मबाज इंसान को पहले आँकड़ो में बदलकर शतरंज खेलता दिन रात बिताता है ये तो माँ ही है जो धरती की तरह सबके गुण-दोष ढाँपती रोते को चुप करवाती पलकों पर बिठाती अपने मुँह से अपने लिए कुछ नहीं माँगती माँ जब तक जागती है लालटेन भी नहीं बुझने देती बेटी-बेटे और समस्त संसार के लिए जाग रही है माँ अभी।

13. नंदो बाजीगरनी

सुई छोटी बड़ी, फरई की आवाज़ लगाती नंदो बाजीगरनी अब हमारे गाँव की गलियों से कभी नहीं गुजरती शायद मर गई होगी छोटी बच्चियों के कान-नाक छेदकर पिरो देती थी झाड़ू का पाक-साफ तिनका कहती सरसों के तेल में हल्दी मिलाकर लगाते रहना अगली बार आती तो पीतल के कोके, बालियां कानों में डालकर कहती बेटी बड़ी हो गई। नंदो औरतों की आधी वैद्य थी पेट दुखने पर चूरन आँख आने पर काजल डालती खरल में काजल पिसती सब के सामने रड़कने लायक कुछ नहीं छोड़ती धरन पड़ी हो तो पेट मलते हुए कहती कौडी हिल गई है वजन मत उठाना बीबी जी पैरों के बल बैठ के दूध न निकालना। बहुत कुछ जानती थी नंदो आधी-अधूरी धनवंतरी वैद्य ही थी। नंदो बाजीगरनी बिन बैटरी के चलता रेडियो थी चलता फिरता बिना शब्दों का लोकल खबरों वाला अखबार थी। नंदो की चादर में सिमटे थे बीस तीस गाँव पूछती सबसे सबका सुख-दुख, अपना कभी न कहती। दिये की लौ सी चमकती आँखों वाली नंदो भले-बुरे का भेद समझती सारे गाँव को नियत की बदनियत और शुभनियत के बारे आगाह करती। नंदो न होती तो कितनी ही बहन-बेटियों को कोरी चादर पर मोर, कबूतरी की कढ़ाई करनी सीख न पाती। वो धिआनपुर से पक्के रंग वाले मजबूत धागों के लच्छे लाती माँ से लस्सी का गिलास पकड़ते रात की बची रोटी ही माँगती ताजी पकी कभी नहीं खाती कहती! आदत बिगड़ जाती है बहन तेज कौरे हर गाँव में तो नहीं हैं न तेरे जैसी। चौंके में माँ के पास बैठी बच्चों का माथा गौर से देखकर कहती स्कूल नहीं गया? बुखार है। चरखे की फरई से कालिख ले मुझ जैसों के कान के पीछे लगा कहती 'बुखार की ऐसी की तैसी' रास्ता भूल जाएगा बेटा ताप! सुबह शरीर फूल सा हल्का होता मैं चल पड़ता स्कूल बस्ता उठाए। मोटी सिलाई से बनी नंदो की बगल पोटली में पूरा संसार था। हर एक के लिए कुछ न कुछ अलग प्रेमियों के लिए पीतल की अंगूठियां-छल्ले छोटे बच्चों के लिए चावलों वाले झुनझुने, पीपनियाँ, बाजे दीन शाह की कुटिया वाले बाग से लाए मोतिये के सुच्चे पुष्प हार मेरी माँ को देकर कहती महकता रहे तेरा परिवार गुलज़ार दुआएँ बाँटती बिना दाम। मुट्ठी-मुट्ठी भर आटे से भरती अपनी पोटली, बाँटती कितना कुछ। घास के तिनकों से अँगूठी बुनना मुझे उसी ने सिखाया था। किताबों ने वो हुनर तो भुलवा दिया पर अब मैं शब्द बुनता हूँ अक्षर-अक्षर घास के तिनकों से। नंदो का कोई गाँव नहीं था बेनाम टपरियां थी। शीर्षक नहीं था कोई पर नंदो बंजारन घर-घर की कहानी थी। हमारे स्कूल के पास ही थी नंदो की टपरियां पर एक भी बच्चा स्कूल नहीं आता था। सदा कहती, हमारी झोपड़ियाँ तोड़ कर बनी हमारी निशानी बरगद ही है बस बाकी सब कुछ पैसे वालों का। ज्ञान के नाम पर दुकानें गरीबों की दुश्वारियां और दंड। हमारे लोग तो इसके नलके से पानी भी नहीं भरते। तलैया का पानी मंजूर, ये जहर सा लगता है हमें। हमारी अपनी भाषा है भाई ये स्कूल हमारी बोली बिगाड़ देगा। बच्चों को भुलवा देगा बाजीगिरी। सुडौल जिस्म के सपने को कोढ़ कर देगा। तांगे में जुता घोड़ा बना चारों तरफ देखने से रोक देगा। नंदो बताया करती हम बाजीगरों की अपनी पंचायत है सरदारो हम तुम्हारी कचहरियों में नहीं चढ़ते। हमारे बुजुर्ग इंसाफ करते हैं फैसले नहीं। तुम्हारी अदालतों में फैसले होते हैं। सूरज गवाह है अँधेरा उतरने से पहले टपरियों में हमारा पहुँचना ज़रूरी है। रात हुई तो बस बात गई, अक्सर इतना सा कहकर वो बहुत कुछ समझा जाती। पर हमें कुछ समझ न आता। बताते हैं नंदो की टपरियों, झुग्गियों का पंचायती नाम लालपुरा रखा है। पर वो अब भी बाजीगरों की बस्ती कहलाती है। बरसों पुरानी नंदो मर चुकी है पर बेटे तो ज़िंदा हैं।

14. जो बच्चा बोलता तो

जो बच्चा बोलता तो कहता! है क्या आपके पास? मेरे पास स्वप्न हैं तरह-तरह के। फुटपाथ से लेकर घर तक। दिल के अरमानों जैसे नक़्शों से नक़्शे बनाऊँगा कोरे पन्नों पर। मैं इनमें भरूँगा रंग। सियाह सफेद रंगों से ही सतरंगी झूला उकेरूँगा। पिता जैसे बेगाना जूता चमकाते हैं, मैं अपना मस्तक चमकाऊंगा। वक़्त आने दो, कुछ करके दिखाऊँगा। पर बच्चा बहुत भोला है, नहीं जानता, एकलव्य का अंगूठा काटने की रीत बहुत पुरानी है। सावधान बच्चे! जंग इतनी भी आसान नहीं। दुश्मन पहले से भी खतरनाक हो गया है।

15. बापूजी कहते थे

बापूजी कहते थे दिल्ली खुद नहीं उजड़ती सिर्फ उजाड़ती है छोटे-बड़े गाँव घर दर चूलें-चौखटें। खूँटों से खोल देती है पशु बछड़े आवारा राजनेताओं के चरने को चारागाह बनती है। दिल्ली कहाँ उजड़ती है? दिल्ली सिर्फ पति बदलती है स्वाद बदलती है जिस्मों के भटकती फिरती है दर-दर आवारा। तख्त पर बैठने का चोगा पहनके ऐरे-गैरे शिकारी पिंजरे में डाल लेती है। सपनों को आवाज़ देती है बेचती कमाती कुछ नहीं बड़ी तेज़ है दिल्ली नखराली। वे अक्सर कहते इसकी ईंटें न देखो नियत परखो नजर कहाँ है और निशाना कहीं और। महाभारत से चलती-चलती भारत तक पहुँची अब फिर कूची उठाए घूम रही है हर कूचे के माथे हिंदुस्तान लिखने को। पुराने किले के पास खो गया हमारा गाँव इंद्रप्रस्थ। मालिक पाडंव कुली बने रेलवे स्टेशन पर मर रहे हैं वजन ढोते-ढोते। हमायूँ किले का मालिक नहीं अब मकबरे में कैद है बना फिरता था बड़ा शहंशाह। बापूजी ने बताया है दिल्ली खुद अगर सात बार उजड़ी इस ने हमें भी सैंकड़ों दफा उजाड़ा है। ये तो फिर बस जाती है सपने खानी छनार। लँगड़ा तैमूर हो या नादिर फिरंगियों तक लंबी कतार बिगड़ैल घोड़ों की कुचलते फिरे जो प्यार से सींचा फुलकारी सा देस। अब भी भटकती रूहें नहीं टिकती। औरंगज़ेब कब्र से उठकर आधी रात भी हूटर बजाता गुजरता है हमारी नींद का दुश्मन पता नहीं किस लिए गलियाँ छानता फिरता है? उजड़े बागों का बातूनी पटवारी। बापूजी ठीक कहते हैं लाल किले की प्राचीर झूठ सुन-सुन उकता, थक गई है पुरानी किताबें वही सबक सिर्फ जीभ बदलती है। झुग्गियाँ बिकती हैं दो मुट्ठी आटे के बदले ज़मीरों की मंडी में नीलाम कुर्सियाँ अपना जिस्म नहीं बेचती अब नए खुले सत्ता के जी बी रोड पर सदाचार बेचती हैं। कुर्बानियों वाले पूछते हैं कौन हैं ये चापलूस बच्चे? हाय बहादुर, सरदार बहादुर कृपाण बहादुर कहाँ गए? जवाब मिला हमारे दरबान दरवाजों पर। दिल और दिल्ली फिर उजड़ती है जब सुनती है सड़ा सा जवाब जिन गलों में जलते हार हैं टायरों के राज बदले नहीं अभी डायरों के। दिल्ली कब उजड़ती है? ये तो उजाड़ती है बागों के बाग उल्लू बोलते हैं चेहरे बदल-बदल वृक्ष डोलता है धरा काँपती है पर उजड़ते हम ही क्यों हैं? दिल्ली तो फिर नया पति ढूँढ लेती है। बहुत उदास हैं बापूजी ये सब देखके कि विधवा बस्ती इंसाफ के लिए तारीखें भुगती मिट चली है। आंसुओं और आहों के बंजारे चुनाव समय बेच लेते हैं चिताएं फिर तख़्त पर बैठते ही भूल जाते हैं बूढ़ी माँ की आँख के लिए दवा बीमार विधवा बेटी के लिए जड़ी-बूटी। बापूजी ठीक कहते थे उजड़े दिलों के लिए दिल्ली तख़्त नहीं तखता है जहाँ फाँसी पे लटकाए जाते हैं अब भी सुनहरे ख्वाव। दिल्ली नहीं उजड़ती सिर्फ उजाड़ती है।

16. सूरज की जात नहीं होती

(महाकवि वाल्मीकि जी को स्मरण करते हुए) उसके हाथ का मोरपंख कागज़ों पर था नाचता पन्नों पर थिरकता इतिहास रचता पहले महाकवि का निर्माता। किसी के लिए ऋषी किसी के लिए महाऋषि कुचलों बेसहारों के लिए पहला भगवान था मुक्तिदाता। स्वाभिमान का ऊँचा दुमंजिला स्तंभ। न नीचा न ऊँचा मानसिकता से बहुत ऊँचा और अलग रौशन सबक था वक़्त के पन्ने पर। त्रिकालदर्शी माथा फैल गया चौबीस हज़ार श्लोकों में घोल कर पूरा खुद को इतिहास हो गया। ईसवीं के पहले पन्नों पर उसने लकीरें नहीं, पदचिन्ह बनाए। काले अक्षरों ने पूरब को भगवान दिखाया पहली बार। ज्ञान सागर का गोताखोर माणिक मोती ढूँढ-ढूँढ पिरोता रहा। अजब मार्गदर्शक। उसके कारनामों पर इबारत लिखना ख़ाला जी का बाड़ा नहीं है। सारी दुनिया के कागज़ से बना छोटा रह गया पन्ना आदि कवि के समक्ष समंदर स्याही की दवात। मोरपंख लिखता रहा वक़्त के पन्नों पे अर्थों के अर्थ करते रहो दोस्तो! सूरज को आप नहीं बना सकते दिया। विश्वकीर्ति के चलते ही सवदेसी पाठ बन गए सर्वकालिक सूर्यलोकित माथा। धरती की हर ज़बान में चमचमाता चमकदार ग्रँथ। सूरज को किसी भी तरीके से देखो सूरज ही रहता है न उतरता न चढ़ता तुम ही ऊपर नीचे होते हो। तपते खपते मरने वाले हो समझने की कोशिश में इसकी जात। बच्चे न बनों सूरज सूरज ही रहता है। इस की जात नहीं झलक होती है। जिधर मुँह करता है दिन होता है, फूल खिलते हैं। रँग भरते हैं, राग छिड़ते हैं। पीठ करे तो लंबी घनेरी रात। इसे अपने जितना मत करो लगातार काट-छाँट ये तुम्हारी मापक मशीनों से बहुत बड़ा है। इसमें मनमर्ज़ी के रंग भरते इसका रंग नहीं रौशन ढंग होता है जगमगाने वाला नूर के घूँट भरो, ध्यान धरो। अपने जितना छोटा न करो। रंग, जात, गोत्र, धर्म, नस्ल से बहुत ऊँचा है कवि आदि कवि सूरज की जात पात नहीं सर्वकल्याणकारी औकात होती है तभी उसके आने पर प्रभात होती है।

17. भाशो जब भी बोलता है

मेरा कवि मित्र भाशो जब भी फोन करता है यही बोलता है सिर्फ कुछ बातें ही करनी हैं ध्यान से सुनना। फूलों गमलों में नहीं क्यारियों में लगाया करो। घुटनों पर बैठ निराई-गुड़ाई करो घुटनों में दर्द नहीं होगा कभी। पानी दिया करो देखो खिलते फूलों को। क्यारियाँ किताबें बन जाती हैं। पन्ना-पन्ना हर्फ़-हर्फ़ पढ़ो बहुत सबक मिलते हैं। रात में नीले अंबर को निहारो तारों से बात करते अक्सर मिल जाते बिछड़े प्यारे साथी। सपनों के लिहाफ़ लपेट गर्म रहो। पछतावे की ठंड मार डालती है। सर्द हवाओं से बचकर रहना जरूरी है। चुप न रहो। कोई जब पास न हो तो दीवारों से करो गुफ़्तगू। खुद को खुद से ही जवाब देना सीखो खुद से अच्छा कोई साथी नहीं। आईने से बातचीत किया करो इंसान चाहे तो उम्र बाँध सकता है। छोटे-छोटे बच्चों को खेलते देखा करो। छोटी सी दुनिया में बहुत कुछ है जीने और जानने को जिया करो। रंगीन गुब्बारे बेचते नंगे पांव गलियों में आवाज़ देते पिपनी बजाते बच्चों को बच्चे न समझो। इन्हें फुरसत नहीं एक पल भी खेलकूद की। गोल पहिया रोटी का लिए घूमता है गली-गली इन्हें इनके हिस्से की वर्णमाला खो गई थी झुँझने की उम्र में। अपने गमगीन साथियों से सावधान! ये तुम्हारी इच्छाओं वाली माचिस नम कर देंगे अपनी ठंडी आहों से। न अगन न लगन सिर्फ़ अलसाए से साये। उड़ते हुए ख्वाबों को चाहतों, साँसों में पिरोकर। कुछ ज़िंदगी के और नजदीक हो लो। शब्दों से खेलता इंसान वृद्ध नहीं होता कविता लिखा करो। बड़े भाई साहब! मैं भी रिटायर हो गया बच्चे पढ़ाता-पढ़ाता जिस गाँव में पढ़ाया वहाँ यही समझ आया कि हमारे शहरों से गाँव अब भी स्वच्छ हैं। तभी तो जब भी उकता सा जाता हूँ किसी गाँव में चला जाता हूँ फसलों से बात करता हूँ माँगता हूँ मौसम बसंती सरसों से कविता में पिरोने को धूप सेंकता हूँ कि पिघला सकूँ जज़्बे चौपाल में बैठ रिश्ते बुनता सूरज छिपते लौट आता हूँ। आप भी जाया करो गाँव हर गाँव इंतजार में रहता है नोट करना! शहर कभी किसी का इंतजार नहीं करते सिर्फ ठिकाना देता है। शहर में रह कर भी मैंने अपने अंदर से गाँव नहीं मरने दिया। आप भी जिंदा रखना। कविता लिखते समय शहर मेरे हाथ से मछली सा फिसल जाता है। गाँव बस गया है आत्मा में आपकी तरह। सुस्ती कमजात को फटकने न देना पास दीमक की तरह चाट जाती है इंसान के अंदर का उत्साह। जीने का शौंक, उमंग याद रखो, वक़्त आपका है। कुत्ते को सैर ही तो नहीं करवाए जा रहे बच के रहना संगत असर छोड़ जाती है। कुत्ते के साथ रहते हुक्म चलाने की आदत पड़ जाती है। बच के रहना। धूप सेका करो! सूरज से बात किया करो। बड़ों की संगत से असीमित उर्जा मिलती है। सूरज की पिचकारी से सीखो फूलों में रंग भरने का तरीका। फलों का रसभरा संसार पहचानो। मेरी बातों पर गौर करना।

18. पता हो तो बताना

वो कविता कहाँ गई जो तुमने लिखी थी कभी। ये तो वो है जो छपी है इसमें से जो तुमने काटा वही तो कविता थी कवि साहब! वो कहाँ गई। ताजा चुए दूध सी थी वो मक्खन के कणों वाली पहाड़ी गायों के दूध घी जैसी ये तो सिर्फ कच्ची लस्सी सी है जनाब कविता किधर गई। ये तो टाल पर पड़ी कटी-छाँगी टहनियों की गठरी है निरा जलावन सरकार खाट, पिड़े, कुर्सियाँ-मेज इससे नहीं बनते। ये तो असल वृक्ष की छाँव थी अब वृक्ष कहाँ है? अकेला कर आए हो तने की जात कितनी ज़ालिम है तेरी औकात कवि बना फिरता है। जा कविता ढूँढ कर ला जिसमें सपने थे चिंगारियाँ छोड़ते छोटे-छोटे अनेकों सूरज अलग-अलग पृथ्वियाँ रौशनाते तुमने तो दरियों की तरह तहकर संभाल दिए हैं संदूक में पाँचो दरिया। ये क्या किया? धरती कौन सींचेगा? शब्दों की आँख नम हो जाती तेरी कविता पढ़ते हुए। ये तो गुड़ की भेली का चूरा है पूरी भेली कहाँ गई? कूट-कूट चूरा करते तुमने मेरे भेली बनाते बापू के हाथों के निशान! बुलडोजर चला दिया है अपनी सड़क सपाट बनाते मिटा दिए हैं पगडंडियों के पैरों पर रचे राह। अपनी कविता सीधी करते। अब मुझे अपने गाँव, घर और खेत का राह भूल गया है। मीलों मील ज्यादा चलना पड़ता है तेरे बनाए आठमार्गी विकास के कारण। मुझे क्या करना था फ्लाईओवरों के जाल का जिस पर बैलगाड़ी नहीं चढ़ती? चारे के गट्ठरों के लिए खेत दूर हो गए हैं मीलों। नानी के घर से दूर हो गया दादी का घर। तुम्हारी कविता से ये सारा कुछ किधर गया? कौन ले गया तेरा ईमान शब्द विधान या कोई और बेईमान? तुमसे उम्मीद नहीं थी शब्दों से दर्द खींच लोगे? आँसू बिना अंधी अक्खियाँ तुम्हारी कविता सी संवेदनहीन। तुम किताबें लिखते जाओ! हम वक़्त के पन्ने से पढ़ लेंगे पीड़ाओं के दस्तावेज। तुमने ही तो संभालने थे रुदन के वार्तालाप अंबर चीरती धरती की हूक। सुब्कियों की इबारत लिखनी थी। वो तो तुमने कविता सुधारते वैसे ही सुधार दिया जैसे पुलिस की लाठियाँ सुधारती थीं बोलता पंजाब जयकारे, नारे लगाता बकरे बनाता बिगड़ैल सपनों का बे-लगाम काफिला। तुम्हारी कविता में वो अंगारे कहाँ हैं? जो गर्मी पहुँचाते राह रौशनाते अब तो गर्म राख का फेर है तुम्हारी रेशमी पन्नों वाली किताब। खद्दर की भाषा में कौन लिखेगा? जुलाहों का दर्द कौन गाँठेगा मोची की फटी आहें? दर्ज़ी की मशीन खा गए कॉरपोरेट दुकानों को उजाड़ गए मॉल भट्ठियाँ नहीं छुपा पाई दाने पैकेटों में थैलीशाहों के कारिंदे बन गए। ग्वार-पट्ठा ऐलोवेरा बन जा बैठा मुनाफे के डिब्बों में नरमा पड़ा है मंडी में सूत अकड़ता है बाजार में कौन है जो फ़ासले बढ़ा गया तुम्हारे और कविता के बीच। बाजार? सरकार? व्यापार? या विश्व-मंडी का जग डसता संसार? पता हो तो बताना?

19. हमारी चिंता न करना

बहुत मुश्किल है उस पीड़ा को अनुवादित करना जो उस आह में छुपी है जो उस रेहड़ी वाले ने भरी है। कि! सरकार जी, स्कूल खोल दो, हमारे घर आटा न दाल अजब तरह कांपती है पैरों तले जमीन जैसे भूचाल कुछ तो करो ख्याल। स्कूल आटा न बेचे न बाँटे फिर इस रेहड़ी वाले को स्कूल खुलने की चिंता क्यों है? आप नहीं समझ सकोगे स्कूल के बाहरी तरफ छोले-भटूरे, आलू-टिक्की, गुड़-चावल के लड्डू और मीठी नमकीन सेवईयां बेचते इस लड़के की आँख अंदर की पीड़ा। आधी छुट्टी के वक़्त यह सब बेचकर स्कूली बच्चों के सहारे उसके घर का चूल्हा जलता है। माँ की आँखों के लिए दवा दरसल। सरकार जी विनती स्वीकार करें इससे पहले कि कोरोना डसे भूख डस रही है। छोटे भाई के लिए पैबंद लगे जूते लेने हैं गर्मियाँ सिर पर हैं बारिश-बरसात से बचने को झुग्गी पर डालने के लिए तिरपाल लेनी है। मेरी बहन दुप्पटा माँगती है। बड़ी हो गई है न! शर्म के मारे बाहर नहीं निकलती लोग बात करते हैं। खाली टीन पूछता है हमारा पेट कब भरेगा? मेरी तो खैर कृपा है! मैं तो कुछ दिन चने चबा पानी पीकर भी गुजार लूँगा। सरकार जी सुनिए! आपने वो टीका तो बना लिया जो कोरोना मुक्त करता है अब वो थर्मामीटर भी बनाओ जो जान सके कि दर्द की तपिश कहाँ तक पहुँची ताकि आपको पता लगे कि हमारे मन में क्या चलता है? स्कूल बंद करने वाले हुक्म करते समय सोचा करो बच्चे कक्षाएं चढ़ने नहीं पढ़ने आते हैं अगली कक्षा में मुँह-जुबानी चढ़ा आप कागजों का पेट तो भर सकते हो! हमारा हरगिज़ नहीं सरकारो। शब्द हार गए तो आपकी कागजी लंका पलों में ढह जाएगी। हज़ूर! हमें कोरोना खाए न खाए पर भूख जरूर खा जाएगी। झुग्गियों जैसे कमजोर घरों में पहले ही सिर्फ मुसीबतें मेहमानों सी आती हैं बल्कि पक्का डेरा जमाती हैं। हमारी आवाज सुनो आपके पास तो रेडियो है, टीवी है अखबार है, दरबार है, जिसको जब चाहे, जहां चाहे मन की बात सुना सकते हो। हम किस से कहें! सिर्फ दिहाड़ी नहीं, दिल टूट रहा है जनाब! हमारी चिंता न करना, स्कूल खोल दो हम खुद कमा के खा लेंगे।

20. आप भी अँधे हैं

उड़ीसा से पंजाब कमाने आए अनपढ़ प्रवासी मजदूर ने चीखकर ललकारते हुए कहा सारे देश की तरह आप भी अँधे हैं साहब! देखते ही नहीं हकीकत! मेरे कंधे पर मेरी बच्ची की लाश नहीं थी बिकाऊ लोकतंत्र था हर पाँच वर्ष बाद जो नीलाम होता है कबाड़ मंडी में हम-आप सब बिकते हैं भुला कर फ़र्ज़ छोटी-छोटी जरूरतों के लिए खरीदने वाले बोली लगाते हैं ऊंची बोली लगाकर ले जाते हैं कसाई के द्वार। भूल-भाल कर पुराने मालिक नए-ओं को बुलाते हैं। लूटो-मारो, हम फिर तैयार हैं। मेरे कंधों पर हर बार कोई न कोई लाश ही क्यों होती है आपने कभी नहीं पूछा? किधर जा रहा था यही न आप तो सब जानते-समझते हैं लाश सिर्फ जाती है मसान को पर नहीं जानते कि आती कहाँ से है? मैं बताता हूँ- छोटी ज़ेब वाले इलाज न करवा सकने वाले घरों से आती हैं जहाँ मैं बहुत अकेला हूँ। बेटी की लाश कंधे पर उठा मसान को जा रहा हूँ अपने, आपके सब के प्यारे वतन की तरह खामोश। चाबुक पड़ रहे हैं। हम बे-रोकटोक चल रहे हैं।

21. सीधी बात

हमें हुक्म न दें हमसे बात करें। हुक्म मालिक देता है। आपको हमने मालिक नहीं अपना प्रतिनिधि चुना है। हमसे अपनों की तरह बात करें जो कहोगे, सुनेंगे। हमारे मालिक न बनें। हमारी रगों में हुक्म के लिए अवमानना है। प्यार के लिए है प्यार। एक हाथ लो, दूसरे हाथ दो। सौदा बराबरी का। हुक्म पराया करते हैं। अगर अपने हो तो अपना बनकर दिखाओ चुनाव समय ही न कहो, भाईयो-बहनों अपने उम्मीदवार जिताओ। हमारे पास लावलश्कर सहित नहीं, अपनों जैसे आओ। कोशिश करना कि इंतजार बना रहे।

22. तू पूछता है तो सुन

दूर रहते मेरे बहुमूल्य दोस्त! तू पूछता है तुझे निकट चुनाव में दल बदलते राजनेता कैसे लगते हैं? तू पूछता है तो सुन बिल्कुल वैसे जैसे गाँव के कच्चे घर रात में खाटों तले भागे फिरते चूहे नीचे-ऊपर एकदूसरे से तेज़ आगे-पीछे रोटियों का चूरा डिब्बे से निकले दाने या खाने-पीने को कुछ ढूँढते बीच में ही घूमती-फिरती छछुंदरें बदबू की लकीर छोड़ती जाती। कभी चूहेदानी में न आती। छछुंदरें चूहे बाहर आते तो बिल्लियां इन्हें खत्म कर देती पर अब तो बिल्लियां भी कुर्सी के लोभ में देखकर अनदेखा हैं कर देती। चुहेदानियाँ भी रंग, नस्ल, जात मुताबिक करती हैं शिकार बेशर्म! सचिवालय की घूमने वाली कुर्सियाँ कॉलेजों युनिवर्सिटियों के पुराने बूट और नेकटाईयाँ बारीनुसार मंडी में आ बैठी तुझे याद है न! जब हम पढ़ते थे मज़दूर आते थे सुबह-सवेरे दिहाड़ी ढूँढने लुधियाना। मगर ये तो अहंकार की भरी वो बोरियाँ हैं जिनका निचला हिस्सा कटा है कभी नहीं भरती ये। बेचैनी हैं पिछली उम्र में चढ़े लोक-सेवा के बुखार से। कोई नहीं पूछता अब तक कहाँ थे जनाब! क्या बताऊँ भाई! अब तो कोई पहचान ही नहीं रही कभी दुधारू खरीदते समय भी बापूजी पूछ लेते पिछली बार ब्याहने पर कितना दूध था इसका। अब तो चमकदार सींगों, गले पड़े मनकों और तेल से चमकाए चमड़े का भाव लगता है। काम कौन पूछता है। ये लोग समझ गए हैं कि कुर्सी कैसे कब्जानी है। किस वक़्त कौन सी पायल कहाँ छनकानी है। भोली जनता कैसे भ्रमानी है सेक्ट्रिएट पर सीढ़ी कब कहाँ कैसे लगानी है? दस्तार इनके लिए नाट्कीय किरदार निभाने की वेशभूषा समान है। अजब मौसम है कि पता ही नहीं लगता हम ज्यादा भोले हैं या वे ही अधिक समझदार हैं जो चुनावी साल में कभी अयोध्या मंदिर, कभी दिल्ली दंगे, हरमंदिर साहिब हमला इष्ट के बिखरे पवित्र अंगों का दर्द गाँव-गाँव लिए फिरते हैं। बेच-बाच के फिर सो जाते हैं। तू पूछता है तो सुन अब तू तो सो जाएगा खुमार भरा प्याला पीकर। तेरे वहाँ तो रात है, पर हमारे गाँव दिन-रात एक से हैं, मटमैले।

23. संघर्षनामा

पहले तो सुना था अब आँखों से देखा है चींटियों ने तोड़ दिया है पहाड़। कीकर बीज कर किशमिश की रखता चाह फिर रहा कांटे चुनता। तेरे उत्पाती संग थे उठने-बैठने अब तुझे अकेला छोड़ गए हैं। हम गर्म लोहों की संतानें अब तो तूने परख लिया है। तिनके कब देखे टिकते दरियाओं के सामने। खोटी नियत थी कानून काले बनाना मुँह के बन गुमान गिरा है। अनाज की रखवाली बकरे को सौंप किसने सुख पाया है। शीश हथेली पर धरा शीशगंज ने जब किले को पसीना आया है। तेरा ज़ुल्मी कुल्हाड़ा कमर से टूटा सब्र वालों ने पीठ न दिखाई। हमें तुझसे प्यारा है वतन बता क्या सबूत चाहिए? बरगद से बुजर्ग और वृद्ध थी माएं तन गई जो बनकर दीवार। बतीस दाँतों ने चबा लिया देखो नाग फुँफकारता।

24. कितना सुंदर ख़त

कितना सुंदर ख़त लिखा है तुमने शब्दों की जगह खिली हैं पत्तियां सी झूमती हवाएँ घर हैं आई तेरी ही तरह मदमस्त सी तेरे इस अंदाज पर सदके मैं जाऊँ बलिहार तुझ पर से बिन मिले ही हम दोनों ने मिल के कात ली हैं किरणें सी।

25. सुनो कहता दीप ललकार के

सुनो कहता दीप ललकार के अंधेरों संग मेरी जंग है। वक़्त बदलने को साथ दो मेरा मेरी तो अब यही मांग है। लेकिन अगर खुद ही सोये रहना हो चाहते रातों सर इल्ज़ाम न देना प्रभात का उत्सव उसने ही मनाना जिसने है आना मेरे संग।

अनुवादक प्रदीप सिंह

जन्मतिथि-31.8.1988
वर्तमान पता- 286 सुंदर नगर, नजदीक नई अनाज़ मंडी हिसार (हरियाणा) पिन-125001
शिक्षा- दैहिक सीमाओँ के चलते स्कूली शिक्षा नही
मोबाइल/व्हाट्स ऐप - +919468142391
प्रकाशन- 2015 में कविता संग्रह 'थकान से आगे' बोधि प्रकाशन जयपुर से प्रकाशित एवं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित
सम्मान- DPF-3(दिल्ली पोएट्री फेस्टिवल-3) में दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया द्वारा युवा श्रेणी में सम्मानित
अन्य उपलब्धियाँ- कुछ कविताएं उर्दू में अनुवादित एवं प्रकाशित

पंजाबी कविता हिंदी में गुरभजन गिल

अनुवादक राजेंद्र तिवारी



1. अब दुश्मन ने भेष बदला

सरहदों की रखवाली कर रहे हाथ और हथियार भी बेकार होकर बैठ गए। नए नवेले दुश्मन से पाने को त्राण पूरी दुनिया के लोग फ़िक्रों से घिर कर बैठ गए। कुल आलम ने विश्वयुद्ध दो आँखों से देखा यह तीसरा आदमखोर विश्वयुद्ध कौन इससे किस तरह टकरे। बन गए सब बलि के बकरे। अब दुश्मन ने बदला भेष। हम तो इस अहंकार में अब तक रहे थे खोए हमारे हाथ में बम परमाणु। यह रखवाला बन हमारे सिर पर जंग-युद्ध में छतरी तानेगा पर यह कहाँ से कौन-सा दुश्मन आया नाम कोरोना रोग विषाणु। घर के भीतर पूरी धरती पर अंदर बैठकर सोच विचारो। अंतस में अपने तनिक दृष्टि तो डालो। अब हदों सरहदों से भी बिना बुलाए लँघता दुश्मन। रंग नस्ल यह देश न देखे। रूतबा, कुर्सी, भेष न देखे। दाब लेता है जागते सोते। इस दुश्मन की नस्ल पहचानो आदमजात की पीड़ा जानो। कुल दुनिया की मनाएँ ज्ञान और विज्ञान सहारे, इस वैरी को मार भगाएँ। नफरत की आग खेल खेल कर अब तक किसने क्या पाया है।

2. किधर गए असवार

जिनको था भ्रम भुलेखा, हम हैं वक़्त पर सवार वक़्त हमसे पूछ कर चलता, बहती है दरिया की धार। वृक्षों के पात हिलाएं हम। भ्रम सृजते, बड़के दावेदार। कहते थे जो बाँध बिठाएँ धरती, सूरज, आग औ' पानी पवन को गाँठे मार। किधर गए असवार। कहाँ गया रौनक मेला सफ़र सवारी जगत झमेला। एक ही भाव गुरु और चेला। तहख़ानों में दुबके सारे भीतर से बंद कर द्वार। किधर गए असवार। बस से पूछते चारों पहिए। बिन घूमे कैसे बेकाम के रहिए। इस मौसम को बता क्या कहिए। कहर कोरोने ने साँस सुखाए, किस तरह ब्रेकें मार। किधर गए असवार। यह बात मेरी पल्ले बाँधना। बाकी चाहे एक न मानना। सब्र से संकट को टालना। कष्ट घड़ी भर है धरती पर, दिल न जाना हार। कष्ट परखता सदा शूरता सिर पर रख कर तलवार।

3. कविता लिखा करो

कविता लिखा करो दर्दो को धरती मिलती है। कोरे पन्नों को सौंपा करो रूह का सारा भार। यह लिखने से नींद में खलल नहीं पड़ती। तुम्हारे पास बहुत कुछ है कविता जैसा सिर्फ स्वयं को अनुवाद करो पिघल जाओ सिर से पैरों तक आहों को शब्दों के परिधान पहनाओ। और कुछ नहीं करना झांझरों को आज से बेड़ियाँ मानना है गहना-आभूषण सुनहरे चुग्गे की तरह। मिट्टी का बुत बेटा या बेटी नहीं बनता है कविता लिखा करो। कविता लिखने से पत्थर होने से बचा जा सकता है आँखों में आँसू आएं भी तो समुद्र बन जाते हैं। चंद्रमा मामा बन जाता है और अंबर के सारे तारे नानका मेल। दरारों के मध्य से लाँघती तेज़ हवा का नाद सुनाई देता है कविता लिखने से क्यारी में खिले फूल, बेल-बूटे कविता की पंक्तियाँ बन जाते हैं। बहुत कुछ बदलता है कविता लिखने से। फागुन चैत महीनों की प्रतीक्षा बनी रहती है पाँचवाँ मौसम प्यार कैसे बनता है कविता समझाती है पास बिठा कर। तपती धरती पर पड़ी पहली बूँदें उतनी देर कविता जैसी नहीं लगती जब तक आप कविता नहीं हो जाते। लड़कियों को बेटियाँ समझने समझाने का नुस्खा है, कविता लिखा करो। रंगों से निकटता बढ़ती है। सब रंगों के स्वभाव जान लेता है मन। कविता लिखा करो। स्वयं से लड़ने की युक्ति सिखाती है कविता हमें बताती है कि सूरज का घर सहज और बहुत समीप होता है। सब्र से जब्र का क्या रिश्ता है तपता तवा कैसे ठर्रता है तपी तपीश्वर और आस्थावान शब्द सृजक के बैठते ही रावी किस तरह आगोश बदलती है। अक्षर से शब्द और उससे आगे वाक्य तक चलना सिखाती है कविता शब्दों का वेश पहनती ठुमक ठुमक चलती स्वयं ही कब्ज़िया लेती है मन के द्वार इत्र फुलेल का फाहा बन जाती रोम रोम महकाती है शब्दों की महारानी। कविता लिखा करो। हँसी की खनक में घुँघरू कैसे छनकते हैं लगातार सरूर में आई रूह गाती है गीत बेशुमार कैसे चंपा मन का खिलता है राग इलाही कैसे छिड़ता है समझने के लिए बहुत ज़रूरी है कविता लिखना। कविता लिखने से पढ़ने की युक्ति आ जाती है। समझने समझाने से आगे महसूस करने से बहुत कुछ बदलता है कविता खिले फूलों के रंगों में से कविता कशीदना सिखाती है। रिक्त स्थान भरने हेतु कविता रंग बनती है। बदरंग पन्नों पर कविता लिखा करो। कविता लिखने से काले बादल मेघदूत बन जाते हैं शकुंतला का दुष्यंत के लिए कलपना महाकाव्य बन जाता है। दर्दों का भीतर की ओर बहता ख़ारा दरिया दर्दमंद कर देता है कविता लिखने से। कोई भी दर्द पराया नहीं रहता ग्लोब पर बसा सारा आलम चींटियों का घर लगता है कुरबल कुरबल करता। सिकंदर ख़ाली हाथ पड़ा कवियों से ही बातें करता है। ताजदार को कविता ही कह सकती बाबर तू जाबर है राजा तू बाघ है मुकद्दम तू कुत्ता है रब्बा तू बेरहम है। कविता लिखा करो। शीश की फीस देकर लिखी कविता को वक़्त साँसों में रमा लेता है थोड़ा थोड़ा बाँटता रहता है सदैव निरंतर जैसे ओस पड़ती है। कविता लिखा करो। कविता साथ साथ चलती है आगे आगे लालटेन बन कर कभी अँधेरी रात में जुगनू बन जाती आशाओं का जलता बलता चौमुखी चिराग। शब्दों के सहारे दरिया, पहाड़, नदियाँ, नाले फलाँग सकते हो एक ही छलांग में। विज्ञानियों से पहले चाँद पर सपनों की खेती कर सकते हो बड़ी सहजता से। सूरज से पार बसते यार से मिल कर दिन निकलते लौट सकते हो। कविता लिखो करो। बच्चा हँसता है तो खुल जाते हैं हज़ारों पवित्र पुस्तकों के पन्ने अर्थों से पार लिखी इबारत-सी किलकारी में ही छिपी होती है कविता। यदि तुम बेटी हो तो बाबुल के नेत्रों में से कविता पढ़ो लिखी लिखाई अंनत पृष्ठों वाली विशाल किताब यदि तुम पुत्र हो तो माँ की लोरियों से औसिआँ तक कविता ही कविता है बाढ़ के पानी-सा मीलों तक आसरे के साथ नन्हे नन्हे कदम रखती मेरी पौत्री आशीष-सा आप भी कविता के आँगन में चला करो। मकान घर इस तरह ही बनते हैं। कविता लिखा करो। (औसिआँ=एक युक्ति जिसमें लोग ज़मीन पर रेखाएं खींच कर किसी बात का पता लगा लेते हैं।)

4. मिल जाया कर

इस तरह ही मिल जाया कर जीवित रहने का भ्रम बना रहता है। फ़िक्रों का चक्रव्यूह टूट जाता है कुछ दिन अच्छे गुज़र जाते हैं रातों को नींद नहीं उचटती मिल जाया कर। शाम सवेरे चलती है रहट अच्छी लगती है रहट की भरी बाल्टियों की कतार। सुबह शाम के बीच बचपन में सूरज देखना याद आता है। मिल जाया कर तुझे याद कर इस ऋतु में बहुत कुछ जागता है मर्म में सौंधी मिट्टी की महक जागती है चार चौफेरे कीट बोलते मेंढकों के फूले हुए चेहरे पीपल के पत्ते पर लटकते जल बिंदु बरगद के पत्तों के बल पर तलते गुलगुले रिंधती खीरें आवाज़ देती निर्वस्त्र रूह लेकर बारिश में भीगना चाहता हूँ मिल जाया कर। तुझसे मिले स्वप्न भी दस्तक देने आ जाते हैं। यही स्वप्न तो मुझे जीवंत रखते हैं। रंगों की डिब्बियाँ खोजने चल पड़ता हूँ जागते ही। स्वप्नों में रंग भरने के लिए उँगलियाँ तूलिका बन जाती हैं। नक्श उभरते हैं दो चार लकीरों के साथ। मिल जाया कर। चौगिर्द में मशीनी-से रिश्ते सेवँइयाँ बटने वाली यंत्र-सी। मैदा ठूसे जाओ सेवँइयाँ उतारे जाओ। दरिया की लहर-सा अलौकिक नृत्य दिखता है भलेमानुष तेरे आने से। द्वार खड़कता है तो मन जागता है गाढ़ी नींद टूटती है। नींद का खुलना बहुत ज़रूरी है मन की रखवाली के लिए मिल जाया कर। शब्द अँकुरते हैं कविता की तरह तरबें छिड़ती हैं सरगम-सी साज़ बजते हैं बिन बजाए अनहद नाद गूँजता है। मरदाने की रबाब याद आती है। सच यार! मिल जाया कर। बहते पानी में ताज़गी बनी रहती है इनसान का चित खिलता है। दूषित पानी में कौन उतरता है? मिल जाया कर। (मरदाना=गुरू नानक के शिष्य जो उनके साथ ही रहते थे और रबाब बजाते थे।)

5. युद्ध का आखिरी दिन नहीं होता

दशहरा युद्ध का आखिरी दिन नहीं दसवां दिन होता है। युद्ध तो जारी रखना पड़ता। सबसे पहले अपने ख़िलाफ़ जिसमें सदियों से रावण डेरा डाले बैठा है। तृष्णा का स्वर्णमृग छोड़ देता है रोज़ सवेरे हमें छलावे में लेता है। सादगी की सीता मैया को रोज़ छलता है फिर भी धर्मी कहलाता है सोने की लंका में बसते वह जान गया है कूटनीति। हर व्यक्ति का मूल्य लगाता है। अपने दरबार में नचाता है। औकात मुताबिक कभी किसी को, कभी किसी को बांदर बनाता है बराबर की कुर्सी पर बिठाता है। भ्रम डालता है। सेठे की तीरों से कहाँ मरता है रावण? जैड प्लस सुरक्षा छत्रधारी। अबे तबे बोलता है घर नहीं देखता, बाहर नहीं देखता अग्नि अंगार मुँह से निकालता हमारे पुत्र पुत्रियों को युद्ध के लिए ईंधन की जगह बरतता। दशहरा युद्ध का आखिरी दिन नहीं दसवां दिन होता है। रावण को तीन सौ पैंसठ दिनों में से सिर्फ दस दिन ही दुश्मन न समझना पल पल जानना और पहचानना। कैसे चूस लेता है हमारा रक़्त सोते सोते घोल कर पी जाता है हमारा स्वाभिमान आत्मगौरव और और बहुत कुछ। आर्य द्रविड़ो को धड़ों में बाँट कर अपना हित साधता है युद्ध वाले नुक़्ते भी ऐसे समझाता है। बातों का बादशाह पास से कुछ न लगाता है। रक्षक बन कर जेबें खँगालता है। वतनपरस्ती के भ्रमजाल में भोली मछलियाँ फँसाता है तर्ज़ तो कोई और बनाता है पर धुन का बहुत पक्का है हर समय एक ही गीत अलापता कुर्सी राग गाता है। पूरा समझौतापरस्त है भगवान को भी बातों में भरमाता है ऐसा उलझाता है पत्थर बना कर उसको मूर्ति सा सजाता है। बगुला भगत पूरा मनचाहा फल पाता है। दशहरा युद्ध का आखिरी दिन नहीं दसवां दिन होता है।

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