जौहर : श्यामनारायण पाण्डेय

Jauhar : Shyam Narayan Pandey

पाँचवीं चिनगारी : दरबार

अंधकार था घोर धरा पर
अभय घूमते चोर धरा पर।
चित्रित पंख मिला पंखों से
सोए वन के मोर धरा पर॥

रोक पल्लवों का कंपन, तरु
ऊँघ रहे थे खड़े खड़े ही।
सैनिक अपने बिस्तर पर कुछ
सोच रहे थे पड़े पड़े ही॥

जहाँ चाँद - सूरज उगते हैं
ऊपर नभ की ओर अँधेरा।
जहाँ दीप मणियों के जलते,
यहाँ वहाँ सब ओर अँधेरा॥

अपनी आँखों से अपना ही
हाथ देखना दुर्लभ - सा था।
तम अनादि से ले अनंत तक,
चारों ओर अगम नभ - सा था॥

गगन चाहता धरा देखना,
अगणित आँखों से तारों की।
तम के कारण देख न पाया,
पामरता अरि के चारों की॥

नीरवता छाई थी केवल,
भूँक रहे थे श्वान दूर पर।
मंद मंद कोलाहल भी था,
और विजय के गान दूर पर॥

जंगल से आखेट खेलकर
रावल अब तक महल न आए।
दुर्गवासियों के मुख इससे
सांध्य - कमल - से थे मुरझाए॥

रावल – रतन – वियोग - व्यथा से
आग लगी रानी के तन में।
आत्मविसर्जन के सब साधन
रह रह दौड़ रहे थे मन में॥

इधर क्रूर कामातुर खिलजी,
बहक रहा था सरदारों में।
मोमबत्तियाँ जलतीं जगमग,
प्रतिबिंबित हो हथियारों में॥

ललित झाड़ फानूस मनोहर,
लाल हरे पीले जलते थे।
जगह जगह पर रंग – बिरंगे,
दीपक चमकीले जलते थे॥

मध्य प्रकाशित, तिमिर पड़ा था,
चारों ओर सजग घेरों में।
विविध रूप धर भानु छिपा था,
मानो खिलजी के डेरों में॥

सोने की चित्रित चौकी पर
एक ओर थी रखी सुराही।
घी का दीप इधर जलता था,
उधर जमात जमी थी शाही॥

उन डेरों के बीच बना था,
उन्नत एक मनोहर डेरा।
पहरेदार सतर्क खड़े थे,
रक्षा के हित डाले घेरा॥

उसी जगह माणिक - आसन पर
शीतलपाटी बिछी हुई थी।
ऊपर शीतलता छाई थी,
नीचे गुलगुल धुनी रुई थी॥

उस पर वह रेशम - पट डाले
बैठा था लेकर खंजर खर।
पीता था मदिरा अंगूरी,
सोने के प्यालों में भर भर॥

एक ओर हीरक - थालों में
एला – केसर – पान – सुपारी।
एक ओर सरदारों से था
बातचीत करता अविचारी॥

बोला खिलजी, रूपवती वह
कल परसों तक मिल जाएगी।
नहीं मिली, तो रण – गर्जन से
सारी पृथ्वी हिल जाएगी॥

दोनों रक्षित रह न सकेंगे,
चाहे रक्षित प्राण रहेगा।
राजपूत - लालित – पालित या
चाहे यह मेवाड़ रहेगा॥

बोल उठे दरबारी, हाँ, हाँ,
इसमें कुछ संदेह नहीं है।
इच्छा पर है जब चाहें तब
रानी की मृदु देह यहीं है॥

किंतु एक दरबारी बोला,
क्षत्रिय – रक्षित है रानी भी।
इतनी जल्दी तो न मिलेगी,
कोई नकचपटी कानी भी॥

रवि से रवि की प्रभा छीनना,
दाँत क्रुद्ध नाहर के गिनना।
जितना कठिन असंभव, उससे
अधिक असंभव उसका मिलना॥

प्राण हथेली पर ले, अहि के
मुख से लप - लप जीभ निकालें।
कभी भूलकर पर साँपिन के
बिल में अपना हाथ न ड़ालें॥

विधि से आधा राज बँटा लें,
मत्त सिंह की नोच सटा लें।
बार बार पर मैं कहता हूँ,
उससे अपना चित्त हटा लें॥

साध्वी परम – पुनीता है वह,
रामचंद्र की सीता है वह।
अधिक आपसे और कहें क्या,
रामायण है गीता है वह॥

कूद आग में जल जाएगी,
गिरि से गिरकर मर जाएगी।
मेरा कहना मान लीजिए,
पर न हाथ में वह आएगी॥

नभ – तारों को ला सकते हैं,
अंगारों को खा सकते हैं।
गिरह बाँध लें, मैं कहता हूँ,
लेकिन उसे न पा सकते हैं॥

सुनते ही यह, अधिक क्रोध से
दोनों आँखें लाल हो गईं।
तुरत अलाउद्दीन क्रूर की
भौंहें तनकर काल हो गईं॥

प्रलय – मेघ सा गरज उठा वह,
राजशिविर को घर समझा है।
बोल उठा जो वैरी सा तू,
क्या मुझको कायर समझा है॥

चाहूँ तो मैं अभी मृत्यु के
लिए मृत्यु - संदेश सुना दूँ।
महाकाल के लिए, कहो तो
फाँसी का आदेश सुना दूँ॥

अभी हवा को भी दौड़ाकर
धर लूँ, धरकर मार गिराऊँ।
पर्वत – सिंधु – सहित पृथ्वी को
अपने कर पर आज उठाऊँ॥

अभी आग की देह जला दूँ
पानी में भी आग लगा दूँ।
अभी चाँद सूरज को नभ से
क्षण में तोड़ यहाँ पर ला दूँ॥

महासिंधु की वेला तोडूँ,
भू पर पानी – पानी कर दूँ।
जल में थल में नभ में अपनी
अभी कहो मनमानी कर दूँ॥

बढ़ी हुई सावन भादों की
गंगा की भी धार फेर दूँ।
अभी कहो बैठे ही बैठे
सारा यह संसार घेर लूँ॥

अभी हिमालय विंध्याचल को
चूर चूरकर धूल बना दूँ।
कहो सुई को रुई बना दूँ,
पत्थर को भी फूल बना दूँ॥

दिनकर कर से हिम बरसाऊँ,
हिमकर से अंगार चुवाऊँ।
अभी कहो तो एक फूँक से
बड़वानल की आग बुझाऊँ॥

नभ को मैं पाताल बना दूँ,
भू को मैं आकाश बना दूँ।
अभी कहो तो नाच नचाकर
सारे जग को दास बना दूँ॥

क्रोध देखकर खिलजी का सब
काँप उठे सैनिक - दरबारी।
लाल - लाल उसकी आँखों से
निकल रही थी खर चिनगारी॥

एक गुप्तचर काँप रहा था,
थरथर खड़ा खड़ा कोने में।
इधर अलाउद्दीन क्रूर को
देर न थी पागल होने में॥

मृगया - निरत रतन को बन से
वही पकड़कर ले आया था।
पर खिलजी का रूप देखकर
अपराधी सा घबड़ाया था॥

उसे काँपते हुए अचानक
देखा उसने तनिक घूमकर।
तुरत क्रोध कुछ शांत हो गया,
बोल उठा सानंद झूमकर॥

शिर पर दुष्कर कार्य - भार है,
बोलो फिर क्या समाचार है।
इसकी बातें क्या सुनते हो,
यह पाजी बिल्कुल गँवार है॥

कहीं शिकारी मिला तुम्हें वह,
जिसके पीछे पड़े हुए थे।
उसे पकड़ने को तो उस दिन
बड़े गर्व से खड़े हुए थे॥

गुप्त दूत ने उसके आगे
साहस कर अपना मुँह खोला।
पुरस्कार की आशा से शिर
झुका झुकाकर झुक झुक बोला॥

सफल आपका दास आज है,
अतिशय हर्षित जन - समाज है।
फँसा आप पिंजड़े में आकर,
आसानी से रतन – बाज है॥

पैरों में हैं बँधीं बेड़ियाँ
हथकड़ियों से हाथ बँधे हैं।
शिविर – द्वार पर चर – बंधन में
आज पद्मिनी – नाथ बँधे हैं॥

अब तो रानी के मिलने में
रंच मात्र संदेह नहीं है।
आधी देह बची है उसकी,
बाकी आधी देह यहीं है॥

गुप्तदूत की बातें सुनकर
बोला, उठो गले लग जाओ।
कहता था, वह नहीं मिलेगी,
इस बुद्दू को भी समझाओ॥

यह लो, उँगली से निकालकर
फेंकी उसकी ओर अँगूठी।
दिए कनक – हीरक रेशम - पट,
टोपी दी नव परम अनूठी॥

आओ एक रतन लाए तो
रतन ढेर के ढेर उठाओ।
मणीमाला, नवलखा हार लो,
मोती – हीरों से भर जाओ॥

कहाँ पद्मिनी का प्यारा पति
कारागृह में उसे डाल दो।
एक पत्र राणा को लिखकर
तुरत सूचना यह निकाल दो—

तभी मुक्त होगा रावल, जब
आ जाएगी स्वयं पद्मिनी;
सिंहासन पर शोभित होगी,
खिलजी की वन राज - सद्मिनी॥

पथिक बोला, पोंछकर आँखें सजल,
आँसुओं के तरल पानी बह चलो।
और योगी से कहा, छू पद – कमल,
तुम रुको न कहीं कहानी कह चलो॥

जप पुजारी ने किया क्षण मौन हो,
चल पड़ी दरबार की आगे कथा।
स्वप्न राणा का कहा, आख्यान में
शत्रु की भी सूचना की थी व्यथा॥

विष्णु मंदिर, द्रुमग्राम, (आज़मगढ़)
दीपावली, संवत १९९७

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