जौहर : श्यामनारायण पाण्डेय

Jauhar : Shyam Narayan Pandey

तीसरी चिनगारी : उन्माद

शीशमहल की दीवालों पर
शोभित नंगी तसवीरें।
चित्रकार ने लिखीं बेगमों
की बहुरंगी तस्वीरें॥

घूमीं परियाँ आँगन में,
प्रतिबिम्ब दिवालों में घूमे।
झूमी सुन्दरियाँ मधु पी,
प्रतिबिम्ब दीवालों में झूमे॥

देह – सुरभि फैली गज – गति में,
छूकर छोर कुलाबों के।
मधुमाते चलते फिरते हों,
मानो फूल गुलाबों के॥

छमछम दो डग चलीं, नूपुरों
की ध्वनि महलों में गूँजी।
बोली मधुरव से, नखरे से,
कोयल डालों पर कूजी॥

उस पर दो दो रति – प्रतिमाएँ
तिरछी चितवन से जीतीं।
उनसे पूछो, उन्हें देखने में
कितनी रातें बीतीं॥

कटि मृणाल - सी ललित लचीली,
नाभी की वह गहराई।
त्रिबली पर अंजन रेखा - सी,
रोम – लता – छवि लहराई॥

भरी जवानी में तन की क्या
पूछ रहे हो सुघराई!
पथिक, थकित थी उनके तन की
सुघराई पर सुघराई॥

साकी ने ली कनक – सुराही,
कमरे में महकी हाला।
भीनी सुरभि उठी मदिरा की,
बना मधुप – मन मतवाला॥

मह मह सकल दिशाएँ महकीं,
महके कण दीवालों के।
सुरा – प्रतीक्षा में चेतन क्या,
हिले अधर मधु - प्यालों के॥

हँसी बेगमों की आँखें,
मुख भीतर रसनाएँ डोलीं।
गंध कबाबों की गमकी,
‘मधु चलो पियें’ सखियाँ बोलीं॥

बड़े नाज से झुकी सुराही,
कुल कुल कुल की ध्वनि छाई।
सोने – चाँदी के पात्रों में
लाल लाल मदिरा आई॥

एक घूँट, दो घूँट नहीं,
प्यालों पर प्याले टकराए।
और भरो मधु और पियो मधु
के रव महलों में छाए॥

मधु पी मत्त हुईं सुन्दरियाँ,
आँखों में सुर्खी छाई।
वाणी पर अधिकार नहीं अब,
गति में चंचलता आई॥

दो सखियों का वक्ष - मिलन,
मन-मिलन, पुलक-सिहरन-कम्पन।
दो प्राणों के मधु मिलाप से
अलस नयन, उर की धड़कन॥

खुली अधखुली आँखों में,
उर – दान – वासना का नर्तन।
एक – दूसरे को नर समझा,
सजल नयन, अर्पित तन – मन॥

डगमग डगमग पैर पड़े,
हाथों से मधु ढाले छूटे।
गिरे संगमरमर के गच पर,
नीलम के प्याले फूटे॥

गिरे वक्ष से वसन रेशमी,
गुँथे केश के फूल गिरे।
मस्त बेगमों के कन्धों से
धीरे सरक दुकूल गिरे॥

मिल मिल नाच उठीं सुन्दरियाँ,
हार मोतियों के टूटे।
तसवीरों के तरुणों ने
अनिमेष दृगों के फल लूटे॥

माणिक की चौकी से भू पर,
मधु के पात्र गिरे झन झन।
बिखरे कंचन के गुलदस्ते,
गिरे धरा पर मणि - कंगन॥

मदिरा गिरी बही अवनी पर,
हँसीं युवतियाँ मतवाली।
कमरे के गिर शीशे टूटे,
बजी युवतियों की ताली॥

नीलम मणि के निर्मल गच पर
गिरी सुराही चूर हुई।
कलकल से मूर्च्छित खिलजी की
कुछ कुछ मूर्च्छा दूर हुई॥

हँसीं, गा उठीं, वेणु बजे,
स्वर निकले मधुर सितारों से।
राग – रागिनी थिरकीं, मुखरित
वीणा के मृदु तारों से॥

परियों के मुख से स्वर – लहरी
निकली मधुर मधुर ताजी।
सारंगी के ताल ताल पर
छम छम छम पायल बाजी॥

एक साथ गा उठीं युवतियाँ,
मूर्च्छित के खुल गए नयन।
कर्कश स्वर के तारतम्य से
उठा त्याग कर राजशयन॥

बोला कहाँ मधुर मदिरा है?
कहाँ घूँट भर पानी है?
कहाँ पद्मिनी, कहाँ पद्मिनी,
कहाँ पद्मिनी रानी है?

हाव – भाव से चलीं युवतियाँ
सुन उन्मादी की बोली।
राग – रागिनी रुकी, रुका स्वर,
बन्द हुई मधु की होली॥

आकर उसे रिझाया हिलमिल,
सुरा - पात्र दे दे खेला।
हाथों में उसके हाथों की
अंगुलियों को ले खेला॥

नयन – कोर से क्षण देखा,
क्षण होंठों पर ही मुसकायीं,
जिधर अंग हिल गया उधर ही,
परियों की आँखें धायीं॥

उन्मादी के खुले वक्ष पर
कर रख कोई अलसाई।
तोड़ तोड़कर अंग हाव से
रह रहकर ली जमुहाई॥

आलिंगन के लिए मनोहर,
मृदुल भुजाएँ फैलाईं।
खिलजी की गोदी में गिर गिर,
आँख मूँद, ली जमुहाई॥

उन्मादी ने करवट बदली,
छम छम नखरे से घूमीं।
उसकी पलकों को चूमा, मधु –
मस्ती में झुक झुक झूमीं॥

पर इनका कुछ असर न देखा
तुरत तरुणियाँ मुरझाईं,
अरुण कपोलों पर विषाद की
रेखा झलकी, कुँभलाईं॥

अपनी कजरारी आँखों पर,
अपने गोल कपोलों पर,
अरुण अधर पर, नाहर कटि – पर,
सुधाभरे मधु बोलों पर,

अपने तन के रूप - रंग पर,
अपने तन के पानी पर,
अपने नाजों पर, नखरों पर,
अपनी चढ़ी जवानी पर,

घृणा हुई, गड़ गईं लाज से,
मादक यौवन से ऊबीं।
भरी निराशा में सुन्दरियाँ
चिन्ता – सागर में डूबीं॥

बोल उठा उन्मादी फिर,
मुझको थोड़ा सा पानी दो।
कहाँ पद्मिनी, कहाँ पद्मिनी,
मुझे पद्मिनी रानी दो॥

बोलो तो क्या तुम्हें चाहिए,
उसे ढूँढकर ला दूँ मैं।
रूपराशि के एक अंश पर ही,
साम्राज्य लुटा दूँ मैं॥

कब अधरों के मधुर हास से
विकसित मेरा मन होगा!
कब चरणों के नख - प्रकाश से
जगमग सिंहासन होगा॥

बरस रहा आँखों से पानी,
उर में धधक रही ज्वाला।
मुझ मुरदे पर ढुलका दो
अपनी छबि – मदिरा का प्याला॥

प्राणों की सहचरी पद्मिनी,
वह देखो हँसती आई।
ज्योति महल में फैल गई,
लो बिखरी तन की सुघराई॥

आज छिपाकर तुम्हें रखूँगा,
अपने मणि के हारों में;
अपनी आँखों की पुतली में,
पुतली के लघु तारों में॥

हाय पद्मिनी कहाँ गई? फिर
क्यों मुझसे इतनी रूठी।
अभी न मैंने उसे पिन्हा
पाई हीरे की अंगूठी॥

किस परदे में कहाँ छिपी
मेरे प्राणों की पहचानी।
हाय पद्मिनी, हाय पद्मिनी,
हाय पद्मिनी, महरानी॥

इतने में चित्तौड़ नगर से,
गुप्त दूत आ गया वहाँ।
उन्मादी ने आँखें खोलीं,
भगीं युवतियाँ जहाँ तहाँ॥

बड़े प्रेम से खिलजी बोला,
कहो यहाँ कब आए हो।
दूर देश चित्तौड़ नगर से
समाचार क्या लाए हो?

मुझे विजय मिल सकती क्या
रावल – कुल के रणधीरों से?
मुझे पद्मिनी मिल सकती क्या
सदा अर्चिता वीरों से॥

सुनो पद्मिनी के बारे में
चुप न रहो कुछ कहा करो।
जब तक पास रहो उसकी ही
मधु – मधु बातें कहा करो॥

किया दूत ने नमस्कार फिर,
कहने को रसना डोली।
निकल पड़ी अधरों के पथ से
विनय भरी मधुमय बोली॥

जहाँ आप हैं, वहीं विजय है,
जहाँ चरण सुख स्वर्ग वहीं।
जहाँ आप हैं वहीं पद्मिनी,
जहाँ आप अपवर्ग वहीं॥

अभी आप इंगित कर दें,
नक्षत्र आपके घर आवें।
रखा पद्मिनी में क्या, नभ से
सूरज – चाँद उतर आवें॥

जिधर क्रोध से आप देख दें,
उधर प्रलय की ज्वाला हो।
जिधर प्रेम से आप देख दें,
उधर फूल हो, माला हो॥

महापुरुष चित्तौड़ नगर के
पास परी सी चित्तौड़ी।
सौत पद्मिनी को न चाहती,
वहीं मानिनी सी पौढ़ी॥

उसकी लेकर मदद आप
चाहें तो पहनें जय - माला।
उससे ही खिंच आ सकती है,
गढ़ की प्रभा रतन – बाला॥

और रानियाँ हो सकतीं
उसके पैरों की धूल नहीं।
सच कहता उसके समान
हँसते उपवन के फूल नहीं॥

रोम – रोम लावण्य भरा है,
रोम – रोम माधुर्य भरा।
बोल – बोल में सुधा लहरती,
शब्द शब्द चातुर्य भरा॥

हिम – माला है, पर ज्वाला भी,
लक्ष्मी है, पर काली भी।
दो डग चलना दुर्लभ, पर
अवसर पर रण - मतवाली भी॥

कानों से सुनकर आँखों से
देखा, जाना, पहचाना।
रतन – रूप की दीप – शिखा का
समझें उसको परवाना॥

इससे पहले जाल प्रेम के
आप बिछावें बिछवावें।
इस पर मिले न तरुणी तब फिर,
रण के बाजे बजवावें॥

इस प्रयत्न से कठिन न उसका
विवश अंक में आ जाना।
शरद – चाँदनी सी आकर
प्राणों में बिखर समा जाना॥

बड़े ध्यान से वचन सुने ये,
खिलजी ने अँगड़ाई ली।
बोला कहो सजे सेना अब,
भैरव सी जमुहाई ली॥

क्षण भर में ही बजे नगाड़े,
गरज उठे रण के बाजे।
निकल पड़ीं झनझन तलवारें,
सजे वीर हय - गज गाजे॥

उधर दुर्ग - सन्निधि अरि आया,
रूप – ज्वाल को रख प्राणो में।
रतन चला आखेट खेलने,
इधर भयद वन के झाड़ों में॥

मृग – दम्पति को मार विपिन में
रावल ने जो पुण्य कमाया।
वनदेवी का तप्त शाप ले
खिलजी से उसका फल पाया॥

वीर पुजारी विपिन – कहानी
लगा सुनाने चिंतित होकर।
सुनने लगा पथिक दंपति की
करुण – सुधा से सिंचित होकर॥

बोला पथिक पुजारी से, क्यों
वनदेवी ने शाप दिया था।
क्यों कैसे अपराध हुआ, क्या
रावल को जो ताप दिया था॥

कहो न देर करो, अब मेरी
उत्कंठा बढ़ती जाती है।
सुनने को विस्मित गाथा वह
मेरी इच्छा अकुलाती है॥

माधव – विद्यालय, काशी
पितृविसर्जन, संवत १९९७

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