ग़ज़लें अली अकबर नातिक़
Ghazlein in Hindi Ali Akbar Natiq

अज़ल के क़िस्सा-गो ने दिल की जो उतारी दास्ताँ

अज़ल के क़िस्सा-गो ने दिल की जो उतारी दास्ताँ
कहीं कहीं से उस ने तो बहुत सँवारी दास्ताँ

हुआ से जो सैरबीं पुराने मौसमों की है
सुना सुना के थक गई मिरी तुम्हारी दास्ताँ

किसी का साया रह गया गली के ऐन मोड़ पर
उसी हबीब साए से बनी हमारी दास्ताँ

मिरी जबीं पे सानेहात ने लिखी हैं अर्ज़ियाँ
ये अर्ज़ियाँ हैं हसरतों की एक भारी दास्ताँ

दिल-ए-ख़राब-ओ-ख़स्ता पर नज़र न तू ने की बहाल
कि उस मकाँ की तेरे गोश सौ गुज़ारी दास्ताँ

अम्न-क़रियों की शफ़क़-फ़ाम सुनहरी चिड़ियाँ

अम्न-क़रियों की शफ़क़-फ़ाम सुनहरी चिड़ियाँ
मेरे खेतों में उड़ीं शाम सुनहरी चिड़ियाँ

नारियाँ दिल के मज़ाफ़ात में उतरीं आ कर
हू-ब-हू जैसे सर-ए-बाम सुनहरी चिड़ियाँ

मेरे उस्लूब में कहती हैं फ़साने गुल के
चुहलें करती हैं मिरे नाम सुनहरी चिड़ियाँ

कच्ची उम्रों के शरीरों को सलामी मेरी
जिन के अतराफ़ बुनें दाम सुनहरी चिड़ियाँ

गुल खिलाती है उसी शख़्स की साँसों की महक
जिस के गावों में बहुत आम सुनहरी चिड़ियाँ

कँवल हों आब में ख़ुश गुल सबा में शाद रहें

कँवल हों आब में ख़ुश गुल सबा में शाद रहें
तिरे हज़ीं तिरी आब-ओ-हवा में शाद रहें

पलट के देस के बाग़ों में हम न जाएँगे
शफ़क़-मिज़ाज हैं सहरा-सरा में शाद रहें

चराग़ बाँटने वालों प हैरतें न करो
ये आफ़्ताब हैं, शब की दुआ में शाद रहें

गुलों की खेतियाँ काटी तिरे शहीदों ने
गुलाब गूँधने वाले अज़ा में शाद रहें

कसे कजावे महमिलों के और जागा रात का तारा भी

कसे कजावे महमिलों के और जागा रात का तारा भी
छोड़ दी बस्ती नाक़ों ने ख़ामोश हुआ नक़्क़ारा भी

चाँद सी आँखें खेल रही थीं सुर्ख़ पहाड़ की ओटों से
पूरब ओर से ताक रहा था उठ कर अब्र का पारा भी

क़ाफ़िले गर्द-ए-सफ़र में डूबे, घंटियों की आवाज़ घुटी
आख़िरी ऊँट की पुश्त पे डाला रात ने सियाह ग़रारा भी

शहर के चौक में वीरानी है आग बुझी, अंधेर हुआ
राख सरों में डाल के बैठे, आज तिरे आवारा भी

कोई न रस्ता नाप सका है, रेत पे चलने वालों का
अगले क़दम पर मिट जाएगा पहला नक़्श हमारा भी

क़ैद-ख़ाने की हवा में शोर है आलाम का

क़ैद-ख़ाने की हवा में शोर है आलाम का
भेद खुलता क्यूँ नहीं ऐ दिल तिरे आराम का

फ़ाख़ताएँ बोलती हैं बाजरों के देस में
तू भी सुन ले आसमाँ ये गीत मेरे नाम का

ठंडे पानी के गगन में सातवीं का चाँद है
या गिरा है बर्फ़ में किंगरा तुम्हारे बाम का

कूकता फिरता है कोई धूप की गलियों में शख़्स
सुन लिया है उस ने शायद हाल मेरी शाम का

ग़ुंचा ग़ुंचा हँस रहा था, पती पत्ती रो गया

ग़ुंचा ग़ुंचा हँस रहा था, पती पत्ती रो गया
फूल वालों की गली में गुल तमाशा हो गया

हम ने देखीं धूप की सड़कों पे जिस की वहशतें
रात के सीने से लग कर आख़िरश वो सो गया

आसमाँ के रौज़नों से लौट आता था कभी
वो कबूतर इक हवेली के छजों में खो गया

इक गली के नूर ने तारीक कितने घर किए
वो न लौटा शख़्स बीना आँखें ले कर जो गया

घंटियाँ बजने से पहले शाम होने के क़रीब

घंटियाँ बजने से पहले शाम होने के क़रीब
छोड़ जाता मैं तिरा गाँव मगर मेरे नसीब

धूप फैली तो कहा दीवार ने झुक कर मुझे
मिल गले मेरे मुसाफ़िर, मेरे साए के हबीब

लौट आए हैं शफ़क़ से लोग बे-नील-ए-मुराम
रंग पलकों से उठा लाए मगर तेरे नजीब

मैं वो परदेसी नहीं जिस का न हो पुरसाँ कोई
सब्ज़ बाग़ों के परिंदे मेरे वतनों के नक़ीब

चाँदी वाले, शीशे वाले, आँखों वाले शहर में

चाँदी वाले, शीशे वाले, आँखों वाले शहर में
खो गया इक शख़्स मुझ से, देखे-भाले शहर में

मंदिरों के सेहन में सदियों पुरानी घंटियाँ
देवियों के हुस्न के कोहना हवाले शहर में

सर्द रातों की हवा में उड़ते पत्तों के मसील
कौन तेरे शब-नवर्दों को सँभाले शहर में

काँच की शाख़ों पे लटके तेरी वहशत के समर
तेरी वहशत के समर भी हम ने पाले शहर में

दिल के रेशों से रिदा-ए-नूर बुनते मिट गए
शब की फ़सलों में नहीं आसाँ उजाले शहर में

ज़र्द फूलों में बसा ख़्वाब में रहने वाला

ज़र्द फूलों में बसा ख़्वाब में रहने वाला
धुँद में उलझा रहा नींद में चलने वाला

धूप के शहर मिरी जाँ से लिपट कर रोए
सर्द शामों की तरफ़ मैं था निकलने वाला

कर गया आप की दीवार के साए पे यक़ीं
मैं दरख़्तों के हरे देस का रहने वाला

उस के तालाब की बतखें भी कँवल भी रोए
रेत के मुल्क में हिजरत था जो करने वाला

दिन का समय है, चौक कुएँ का और बाँकों के जाल

दिन का समय है, चौक कुएँ का और बाँकों के जाल
ऐसे में नारी तू ने चली फिर तीतरी वाली चाल

जामुनों वाले देस के लड़के, टेढ़े उन के तौर
पँख टटोलें तूतियों के वो, फिर कर हर हर डाल

वो शख़्स अमर है, जो पीवेगा दो चाँदों के नूर
उस की आँखें सदा गुलाबी जो देखे इक लाल

शाम की ठंडी रुत ने भरे हैं आब-ए-हयात से नैन
मोंगरों वाले बाग़ ने ओढ़ी गहरी कासनी शाल

दिल के दाग़ में सीसा है और ज़ख़्म-ए-जिगर में ताँबा है

दिल के दाग़ में सीसा है और ज़ख़्म-ए-जिगर में ताँबा है
इतना भारी सीना ले कर शख़्स आवारा फिरता है

काँच के रेज़े तेज़ हवा में बावले उड़ते फिरते हैं
नंगे बदन की चाँदनी से फिर तारा तारा गिरता है

आधे पेड़ पे सब्ज़ परिंदे आधा पेड़ आसेबी है
कैसे खुले ये राम-कहानी कौन सा हिस्सा मेरा है

काले देवता मुट्ठी भर भर सूने घरों में फेंकते हैं
कोहर-ज़दा बस्ती के चौक में राख का ऊँचा टीला है

सर्द शबों का पोछने वालो इन रातों के तारे दूर
धुँदले चाँद की नब्ज़ें गूँगी आग का चेहरा नीला है

पीपलों वाली गलियाँ उजड़ी ढेर हैं पीले पत्तों के
सामने वाली सुर्ख़ हवेली में भूतों का डेरा है

बाद-ए-सहरा को रह-ए-शहर पे डाला किस ने

बाद-ए-सहरा को रह-ए-शहर पे डाला किस ने
तार-ए-वहशत को गरेबाँ से निकाला किस ने

मुख़्तसर बात थी, फैली क्यूँ सबा की मानिंद
दर्द-मंदों का फ़साना था, उछाला किस ने

बस्तियों वाले तो ख़ुद ओढ़ के पत्ते, सोए
दिल-ए-आवारा तुझे रात सँभाला किस ने

आग फूलों की तलब में थी, हवाओं पे रुकी
नज़्र-ए-जाँ किस की हुई, राह से टाला किस ने

काँच की राह पे इक रस्म-ए-सफ़र थी मुझ से
ब'अद मेरे बुना हर गाम पे जाला किस ने

रो चले चश्म से गिर्या की रियाज़त कर के

रो चले चश्म से गिर्या की रियाज़त कर के
आँखें बे-नूर हैं यूसुफ़ की ज़ियारत कर के

दिल का अहवाल तो ये है कि ये चुप-चाप फ़क़ीर
लग के दीवार से बैठा तुझे रुख़्सत कर के

इतना आसाँ नहीं पानी से शबीहें धोना
ख़ुद भी रोएगा मुसव्विर ये क़यामत कर के

सरफ़राज़ी उसे बख़्शी है जहाँ ने मुतलक़
दार तक पहुँचा अगर कोई भी हिम्मत कर के

हरीम-ए-दिल, कि सर-ब-सर जो रौशनी से भर गया

हरीम-ए-दिल, कि सर-ब-सर जो रौशनी से भर गया
किसे ख़बर, मैं किन दियों की राह से गुज़र गया

ग़ुबार-ए-शहर में उसे न ढूँड जो ख़िज़ाँ की शब
हवा की राह से मिला, हवा की राह पर गया

तिरे नवाह में रहा मगर मियान-ए-दीन-ओ-दिल
गजर बजा तो जी उठा, सुनी अज़ाँ तो मर गया

सफ़ेद पत्थरों के घर, घरों में तीरगी के ग़म
हज़ार ग़म का एक ये कि तू भी बे-ख़बर गया

नगर हैं आफ़्ताब के, बरहना गुम्बदों के सर
सरों पे नूर के कलस, मैं नूर में उतर गया

हवा के तख़्त पर अगर तमाम उम्र तू रहा

हवा के तख़्त पर अगर तमाम उम्र तू रहा
मुझे ख़बर न हो सकी प साथ साथ मैं भी था

चमकते नूर के दिनों में तेरे आस्ताँ से दूर
वो मैं कि आफ़्ताब की सफ़ेद शाख़ पर खिला

हिजाब आ गया था मुझ को दिल के इज़्तिराब पर
यही सबब है तेरे दर पे लौट कर न आ सका

वो किस मकाँ की धूप थी, गली गली में भर गई
वो कौन सब्ज़ा-रुख़ था जो कि मोम सा पिघल गया

कभी तो चल के देखो साए पीपलों के देस के
जहाँ लड़कपना हमारे हाथ से जुदा हुआ