ग़ज़ल गाँव : मुनव्वर राना

Ghazal Gaon : Munnawar Rana

जगमगाते हुए शहरों को तबाही देगा

जगमगाते हुए शहरों को तबाही देगा
और क्या मुल्क को मग़रूर सिपाही देगा

पेड़ उम्मीदों का ये सोच के काटा न कभी
फल न आ पायेंगे इसमें तो हवा ही देगा

तुमने ख़ुद ज़ुल्म को मेयारे-हुकूमत समझा
अब भला कौन तुम्हें मसनदे-शाही देगा

जिसमें सदियों से ग़रीबों का लहू जलता हो
वो दिया रोशनी क्‍या देगा, सियाही देगा

मुन्सिफ़े-वक़्त है तू और मैं मज़लूम मगर
तेरा क़ानून मुझे फिर भी सज़ा ही देगा

किसमें हिम्मत है जो सच बात कहेगा राना
कौन है जो कि मेरे हक़ में गवाही देगा

जो उसने लिक्खे थे ख़त कापियों में छोड़ आये

जो उसने लिक्खे थे ख़त कापियों में छोड़ आये
हम आज उसको बड़ी उलझनों में छोड़ आये

अगर हरीफ़ों में होता तो बच भी सकता था
ग़लत किया जो उसे दोस्तों में छोड़ आये

सफ़र का शौक़ भी कितना अजीब होता है
वो चेहरा भीगा हुआ आँसुओं में छोड़ आये

फिर उसके बाद वो आँखें कभी नहीं रोयीं
हम उनको ऐसी गलतफ़हमियों में छोड़ आये

महाज़े-जंग पे जाना बहुत ज़रूरी था
बिलखते बच्चे हम अपने घरों में छोड़ आये

जब एक वाक़या बचपन का हमको याद आया
हम उन परिन्दों को फिर घोंसलों में छोड़ आये

जिसको एहसासे ग़म नहीं होगा

जिसको एहसासे ग़म नहीं होगा
संग होगा सनम नहीं होगा

यूँ अचानक तेरे बिछड़ने का
ग़म तो मुझको भी कम नहीं होगा

तुम न समझोगे मेरे सर का जुनूँ
टूट जायेगा ख़म नहीं होगा

ऐ अहले-सियासत ये क़दम रुक नहीं सकते

ऐ अहले-सियासत ये क़दम रुक नहीं सकते
रुक सकते हैं फ़नकार क़लम रुक नहीं सकते

हाँ, होश ये कहता है कि महफ़िल में ठहर जा
ग़ैरत का तक़ाज़ा है कि हम रुक नहीं सकते

ये क्‍या कि तेरे हाथ भी अब काँप रहे हैं
तेरा तो ये दावा था सितम रुक नहीं सकते

अब धूप हक़ीक़त की है और शौक़ की राहें
ख़्वाबों की घनी छाँव में हम रुक नहीं सकते

हैं प्यार की राहों में अभी सैकड़ों पत्थर
रफ़्तार बताती है क़दम रुक नहीं सकते

दिल पे ले कर हम एक निशान चले

दिल पे ले कर हम एक निशान चले
तेरी महफ़िल से मेहरबान चले

याद आयेंगे दोस्तों की तरह
दे के ऐसा हम एक निशान चले

न सही फूल, संग ही फेंको
और कुछ देर इम्तहान चले

सिलसिला दोस्ती का क्‍यों टूटे
न सही तीर तो ज़बान चले

एक आस की मारी हुई दुल्हन की तरह है

एक आस की मारी हुई दुल्हन की तरह है
ये ज़िन्दगी टूटे हुए कंगन की तरह है

हर शख़्स मेरे शहर में दुश्मन की तरह है
अब राम का किरदार भी रावन की तरह है

दिलकश भी नज़र आती है धब्बे भी बहुत हैं
ये ज़िन्दगी ज़रदार की उतरन की तरह है

इस दौरे-तरक़्क़ी में भी मुफ़लिस की जवानी
भट्टी में सुलगते हुए ईंधन की तरह है

मुद्दत से तेरे पाँव की आहट से है महरूम
ये दिल भी किसी बाँझ के आँगन की तरह है

हमें मज़दूरों की, मेहनतकशों की याद आती है

हमें मज़दूरों की, मेहनतकशों की याद आती है
इमारत देख कर कारीगरों की याद आती है

नमाज़ें पढ़ के वापस लौटते बच्चों से मिलते ही
न जाने क्‍यों हमें पैग़म्बरों की याद आती है

मैं अपने भाइयों के साथ जब बाहर निकलता हूँ
मुझे यूसुफ़ के जानी दुश्मनों की याद आती है

तुम्हारे शहर की ये रौनक़ें अच्छी नहीं लगतीं
हमें जब गाँव के कच्चे घरों की याद आती है

मेरे बच्चे कभी मुझसे जो पानी माँग लेते हैं
तो पहरों करबला के वाक़यों की याद आती है

ख़ुश्क था जो पेड़ उस पर पत्तियाँ अच्छी लगीं

ख़ुश्क था जो पेड़ उस पर पत्तियाँ अच्छी लगीं
तेरे होंटों पर लरज़ती सिसकियाँ अच्छी लगीं

हर सहूलत थी मयस्सर लेकिन इसके बावजूद
माँ के हाथों की पकाई रोटियाँ अच्छी लगीं

जिसने आज़ादी के क़िस्से भी सुने हों क़ैद में
उस परिन्दे को क़फ़स की तीलियाँ अच्छी लगीं

हाथ उठा के वक़्ते-रुख़्सत जब दुआएँ उसने दीं
उसके हाथों की खनकती चूड़ियाँ अच्छी लगीं

हम बहुत थक-हार के लौटे थे लेकिन जाने क्‍यों
रेंगती, बढ़ती, सरकती चींटियाँ अच्छी लगीं

हमें भी पेट की ख़ातिर ख़ज़ाना ढूँढ लेना है

हमें भी पेट की ख़ातिर ख़ज़ाना ढूँढ लेना है
इसी फेंके हुए खाने से दाना ढूँढ लेना है

तुम्हें ऐ भाइयो यूँ छोड़ना अच्छा नहीं लेकिन
हमें अब शाम से पहले ठिकाना ढूँढ लेना है

खिलौनों के लिए बच्चे अभी तक जागते होंगे
तुझे ऐ मुफ़लिसी कोई बहाना ढूँढ लेना है

मुसाफ़िर हैं हमें भी शब-गुज़ारी के लिए राना
बजाय मैक़दे के चायख़ाना ढूँढ लेना है

यो एक शख़्स जो बचपन से मेरे गाँव में है

यो एक शख़्स जो बचपन से मेरे गाँव में है
ये जानता नहीं कोई कि देवताओं में है

जो अपने गाँव की पगडण्डियों पे छोड़ आया
छुपी हुई मेरी अज़मत उसी खड़ाओं में है

तमाम दोस्त हमें छोड़ कर चले भी गये
मगर ये काँटा अभी तक हमारे पाँव में है

लिपट के रोती नहीं हैं कभी शहीदों से
ये हौसला भी हमारे वतन की माँओं में है

मेरे घर के दरो-दीवार की हालत नहीं देखी

मेरे घर के दरो-दीवार की हालत नहीं देखी
बरसते बादलो, तुमने भी मेरी छत नहीं देखी

जहाँ पर गिन के रोटी भाइयों को भाई देते हैं
सभी चीज़ें वहाँ देखीं मगर बरक़त नहीं देखी

मेरी दौलत, मेरी कार और मेरा घर देखने वालो
सभी देखा, मगर तुमने मेरी मेहनत नहीं देखी

अब कहने की ये बात नहीं है लेकिन कहना पड़ता है

अब कहने की ये बात नहीं है लेकिन कहना पड़ता है
एक तुझसे मिलने की ख़ातिर हमें सबसे मिलना पड़ता है

हमें दिन-तारीख़ तो याद नहीं बस इससे अन्दाज़ा कर लो
हम उस मौसम में बिछड़े थे जब गाँव में झूला पड़ता है

माँ-बाप की बूढ़ी आँखों में इक फ़िक्र-सी छायी रहती है
जिस कम्बल में सब सोते थे अब वो भी छोटा पड़ता है

सब कहते हैं ये देस हमारा सोने की इक चिड़िया है
इस बात को वो कैसे माने जिसे भूखा सोना पड़ता है

रिसते हुए ज़ख़्मों को दवा भी नहीं मिलती

रिसते हुए ज़ख़्मों को दवा भी नहीं मिलती
अब हमको बुज़ुर्गों से सज़ा भी नहीं मिलती

क्‍या जाने कहाँ होते मेरे फूल-से बच्चे
विरसे में अगर माँ की दुआ भी नहीं मिलती

मुद्दत से तुम्हारा कोई ख़त भी नहीं आया
रस्ते में कहीं बादे-सबा भी नहीं मिलती

जो धूप में जलने का सलीक़ा नहीं रखता
उस पेड़ को पत्तों की क़बा भी नहीं मिलती

हम उसके पास से उठ कर जो झूठ-मूठ गये

हम उसके पास से उठ कर जो झूठ-मूठ गये
तमाम बाँध जो बाँधे थे उसने टूट गये

तू हमको छोड़ के जाता है, जा, ख़ुदा हाफ़िज़
मगर ख़ुदा न करे हम जो दूट-फूट गये

...
घेर लेने को मुझे जब भी बलाएँ आ गयीं
ढाल बन कर सामने माँ की दुआएँ आ गयीं

सूने आँगन की उदासी में इज़ाफ़ा हो गया
चोंच में तिनके लिये जब फ़ाख्ताएँ आ गयीं

लहू में रंग के छींटे मिलाये जाते हैं

लहू में रंग के छींटे मिलाये जाते हैं
मुशायरों में लतीफ़े सुनाये जाते हैं

नया चराग्र जलाते हैं जब भी हम राना
हमें हवाओं के क़िस्से सुनाये जाते हैं

...
क्या चमन, क्या फ़स्ले-गुल सब कुछ निहाँ हो जायेगा
बुझ गयीं आँखें तो हर मंज़र धुआँ हो जायेगा

राहे-हक़ में मंज़िले-दारो-रसन आने तो दो
जो ज़बाँ रखता है वो भी बेज़बाँ हो जायेगा

काजल से मेरा नाम न लिखिए किताब पर

काजल से मेरा नाम न लिखिए किताब पर
कुछ लोग जल न जायें कहीं इन्तख़ाब पर

...
रात देखा है बहारों पे ख़िज़ां को हँसते
कोई तोहफ़ा मुझे शायद मेरा भाई देगा

...
हम सिसकते हुए रिश्तों के कहाँ क़ायल थे
वरना हम, और तुझे दाग़े-जुदाई देते

...
हम न दिल्ली थे, न मज़दूर की बेटी लेकिन
क़ाफ़िले जो भी इधर आये, हमें लूट गये

सूखा न पसीना कभी पंखे की हवा से

सूखा न पसीना कभी पंखे की हवा से
हम लोग समन्दर से पलट आये हैं प्यासे

ये सोच के दामन मेरे महबूब बचाना
चेहरे पर उभर आयेंगे यादों के मुँहासे

...
ख़्वाहिशों ने जो बनाये थे वो मीनार गिरे
भाव चढ़ने भी न पाये थे कि बाज़ार गिरे

...
वो एक गुड़िया जो मेले में कल दुकान में थी
दिनों की बात है पहले मेरे मकान में थी

...
बड़े लोगों से मिलने में बुराई कुछ नहीं राना
मगर इस पेड़ की शाखें बहुत कमज़ोर होती है

...
मुसलसल धूप में चलने का ये अंजाम है राना
कि अब पेड़ों के साये भी बुरे मालूम होते हैं

दिल को मिल गयी ख़ुशी कोई

दिल को मिल गयी ख़ुशी कोई
उसने रक्‍खा सँभाल कर ऐसे

जैसे इस्मत किसी कुँवारी की
जैसे मुफ़लिस के हाथ में पैसे

...
सितारे पलकों पे अपनी सजाने वाला था
मैं आज जश्ने-तबाही मनाने वाला था

गुज़र गयी कुचलते हुए ये बस जिसको
वो शख़्स लौट के कल गाँव जाने वाला था

कोई पागल किसी पागल को पकड़ना चाहे

कोई पागल किसी पागल को पकड़ना चाहे
मरमरीं हाथों से मख़मल को पकड़ना चाहे

यूँ ही मैंने तेरे आँचल की तमन्ना की थी
जैसे बच्चा कोई बादल को पकड़ना चाहे

...
यूँ बुझा है चराग यादों का
जब भी फैले कर्ब के साये

जैसे इकलौता लाल बेवा का
किसी मोटर से दब के मर जाये

लबों पे उसके कभी बद-दुआ नहीं होती

लबों पे उसके कभी बद-दुआ नहीं होती
बस एक माँ है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती

मैं एक फ़क़ीर के होंटों की मुस्कुराहट हूँ
किसी से भी मेरी क़ीमत अदा नहीं होती

क़त्ल भी होगा हमारा तो यहीं पर होगा

क़त्ल भी होगा हमारा तो यहीं पर होगा
फ़ैसला जो भी हो दुश्मन की ज़मीं पर होगा

आओ कुछ देर किसी पेड़ के नीचे बैठें
वरना फिर कोई कहीं, कोई कहीं पर होगा

...
आरज़ूओ दिले-पामाल की जानिब आना
आसमानो कभी पाताल की जानिब आना

इश्क़ है काम मेरा नाम मुनव्वर राना
मुझसे मिलना हो तो बंगाल की जानिब आना

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