गीतांजलि रवीन्द्रनाथ ठाकुर अनुवाद डॉ. डोमन साहु 'समीर'

Gitanjali Rabindranath Tagore Translator Dr. Doman Sahu Sameer


मेरा माथा नत कर दो तुम (आमार माथा नत क’रे दाव तोमार चरण धूलार त’ ले)

मेरा माथा नत कर दो तुम अपनी चरण-धूलि-तल में; मेरा सारा अहंकार दो डुबो-चक्षुओं के जल में। गौरव-मंडित होने में नित मैंने निज अपमान किया है; घिरा रहा अपने में केवल मैं तो अविरल पल-पल में। मेरा सारा अहंकार दो डुबो चक्षुओं के जल में।। अपना करूँ प्रचार नहीं मैं, खुद अपने ही कर्मों से; करो पूर्ण तुम अपनी इच्छा मेरी जीवन-चर्या से। चाहूँ तुमसे चरम शान्ति मैं, परम कान्ति निज प्राणों में; रखे आड़ में मुझको आओ, हृदय-पद्म-दल में। मेरा सारा अहंकार दो। डुबो चक्षुओं के जल में।।

विविध वासनाएँ हैं मेरी प्रिय प्राणों से भी (आमि बहु वासनाय प्राणपणे चाइ...)

विविध वासनाएँ हैं मेरी प्रिय प्राणों से भी वंचित कर उनसे तुमने की है रक्षा मेरी; संचित कृपा कठोर तुम्हारी है मम जीवन में। अनचाहे ही दान दिए हैं तुमने जो मुझको, आसमान, आलोक, प्राण-तन-मन इतने सारे, बना रहे हो मुझे योग्य उस महादान के ही, अति इच्छाओं के संकट से त्राण दिला करके। मैं तो कभी भूल जाता हूँ, पुनः कभी चलता, लक्ष्य तुम्हारे पथ का धारण करके अन्तस् में, निष्ठुर ! तुम मेरे सम्मुख हो हट जाया करते। यह जो दया तुम्हारी है, वह जान रहा हूँ मैं; मुझे फिराया करते हो अपना लेने को ही। कर डालोगे इस जीवन को मिलन-योग्य अपने, रक्षा कर मेरी अपूर्ण इच्छा के संकट से।।

अनजानों से भी करवाया है परिचय मेरा तुमने (कत’ अजानारे जानाइले तुमि...)

अनजानों से भी करवाया है परिचय मेरा तुमने; जानें, कितने आवासों में ठाँव मुझे दिलवाया है। दूरस्थों को भी करवाया है स्वजन समीपस्थ तुमने, भाई बनवाए हैं मेरे अन्यों को, जानें, कितने। छोड़ पुरातन वास कहीं जब जाता हूँ, मैं, ‘क्या जाने क्या होगा’-सोचा करता हूँ मैं। नूतन बीच पुरातन हो तुम, भूल इसे मैं जाता हूँ; दूरस्थों को भी करवाया है स्वजन समीपस्थ तुमने। जीवन और मरण में होगा अखिल भुवन में जब जो भी, जन्म-जन्म का परिचित, चिन्होगे उन सबको तुम ही। तुम्हें जानने पर न पराया होगा कोई भी; नहीं वर्जना होगी और न भय ही कोई भी। जगते हो तुम मिला सभी को, ताकि दिखो सबमें ही। दूरस्थों को भी करवाया है स्वजन समीपस्थ तुमने।।

मेरी रक्षा करो विपत्ति में, यह मेरी प्रार्थना नहीं है (विपोदे मोरे रक्षा क’रो, ए न’हे मोर प्रार्थना)

मेरी रक्षा करो विपत्ति में, यह मेरी प्रार्थना नहीं है; मुझे नहीं हो भय विपत्ति में, मेरी चाह यही है। दुःख-ताप में व्यथित चित्त को यदि आश्वासन दे न सको तो, विजय प्राप्त कर सकूँ दुःख में, मेरी चाह यही है।। मुझे सहारा मिले न कोई तो मेरा बल टूट न जाए, यदि दुनिया में क्षति-ही-क्षति हो, (और) वंचना आए आगे, मन मेरा रह पाये अक्षय, मेरी चाह यही है।। मेरा तुम उद्धार करोगे, यह मेरी प्रार्थना नहीं है; तर जाने की शक्ति मुझे हो, मेरी चाह यही है। मेरा भार अगर कम करके नहीं मुझे दे सको सान्त्वना, वहन उसे कर सकूँ स्वयं मैं, मेरी चाह यही है।। नतशिर हो तब मुखड़ा जैसे सुख के दिन पहचान सकूँ मैं, दुःख-रात्रि में अखिल धरा यह जिस दिन करे वंचना मुझसे, तुम पर मुझे न संशय हो तब, मेरी चाह यही है।।

प्रेम, प्राण, गीत, गन्ध, आभा और पुलक में (प्रेमे प्राणे गाने गन्धे आलोके पुलके...)

प्रेम, प्राण, गीत, गन्ध, आभा और पुलक में, आप्लावित कर अखिल गगन को, निखिल भुवन को, अमल अमृत झर रहा तुम्हारा अविरल है। दिशा-दिशा में आज टूटकर बन्धन सारा- मूर्तिमान हो रहा जाग आनंद विमल है; सुधा-सिक्त हो उठा आज यह जीवन है। शुभ्र चेतना मेरी सरसाती मंगल-रस, हुई कमल-सी विकसित है आनन्द-मग्न हो; अपना सारा मधु धरकर तब चरणों पर। जाग उठी नीरव आभा में हृदय-प्रान्त में, उचित उदार उषा की अरुणिम कान्ति रुचिर है, अलस नयन-आवरण दूर हो गया शीघ्र है।।

आओ नव-नव रूपों में तुम प्राणों में (तुमि ! नव-नव रूपे एसो प्राणे...)

आओ नव-नव रूपों में तुम प्राणों में; आओ गन्धों में, वर्णों में, गानों में। आओ अंगों में तुम, पुलिकत स्पर्शों में; आओ हर्षित सुधा-सिक्त सुमनों में। आओ मुग्ध मुदित इन दोनों नयनों में; आओ नव-नव रूपों में तुम प्राणों में। आओ निर्मल उज्ज्वल कान्त ! आओ सुन्दर स्निग्ध प्रशान्त ! आओ, आओ हे वैचित्र्य-विधानों में। आओ सुख-दुःख में तुम, आओ मर्मों में; आओ नित्य-नित्य ही सारे कर्मों में। आओ, आओ सर्व कर्म-अवसानों में; आओ नव-नव रूपों में तुम प्राणों में।।

लगी हवा यों मन्द-मधुर (लेगेछे अमल धवल पाले मन्द मधुर हावा)

लगी हवा यों मन्द-मधुर इस नाव-पाल पर अमल-धवल है; नहीं कभी देखा है मैंने किसी नाव का चलना ऐसा। लाती है किस जलधि-पार से धन सुदूर का ऐसा, जिससे- बह जाने को मन होता है; फेंक डालने को करता जी तट पर सभी चाहना-पाना ! पीछे छरछर करता है जल, गुरु गम्भीर स्वर आता है; मुख पर अरुण किरण पड़ती है, छनकर छिन्न मेघ-छिद्रों से। कहो, कौन हो तुम ? कांडारी। किसके हास्य-रुदन का धन है ? सोच-सोचकर चिन्तित है मन, बाँधोगे किस स्वर में यन्त्र ? मन्त्र कौन-सा गाना होगा ?

कहाँ आलोक, कहाँ आलोक ? (कोथाय आलो, कोथाय ओरे आलो ?)

कहाँ आलोक, कहाँ आलोक ? विरहानल से इसे जला लो। दीपक है, पर दीप्ति नहीं है; क्या कपाल में लिखा यही है ? उससे तो मरना अच्छा है; विरहानल से इसे जला लो।। व्यथा-दूतिका गाती-प्राण ! जगें तुम्हारे हित भगवान। सघन तिमिर में आधी रात तुम्हें बुलावें प्रेम-विहार- करने, रखें दुःख से मान। जगें तुम्हारे हित भगवान।’ मेघाच्छादित आसमान है; झर-झर बादल बरस रहे हैं। किस कारण इसे घोर निशा में सहसा मेरे प्राण जगे हैं ? क्यों होते विह्वल इतने हैं ? झर-झर बादल बरस रहे हैं। बिजली क्षणिक प्रभा बिखेरती, निविड़ तिमिर नयनों में भरती। जानें, कितनी दूर, कहाँ है- गूँजा गीत गम्भीर राग में। ध्वनि मन को पथ-ओर खींचती, निविड़ तिमिर नयनों में भरती। कहाँ आलोक, कहाँ आलोक ? विरहानल से इसे जला लो। घन पुकारता, पवन बुलाता, समय बीतने पर क्या जाना ! निविड़ निशा, घन श्याम घिरे हैं; प्रेम-दीप से प्राण जला लो।।

जानें, कैसे गाते हो तुम गीत, गुणी ! (তুমি কেমন করে গান কর হে গুণী)

जानें, कैसे गाते हो तुम गीत, गुणी ! मैं अवाक् हो सुनता, सुनता ही रहता ! व्याप्त भुवन में सुर-प्रकाश हो जाता है, राग पवन का पसर गगन में जाता है; हो जाता है भंग विकल हो पत्थर भी, जब स्वर की सुर-लहरी तब बजने लगती । चाह यही है वैसा ही मैं भी गाऊँ, (और) कंठ में वैसा ही निज स्वर भर लूँ । चाह रहा हूँ–कहूँ; कहाँ कह पाता हूँ ? रो देते हैं प्राण हारकर मेरे ये । डाल दिया किस फंदे में तुमने मुझको, अपने स्वर का जाल चतुर्दिक् बुन करके ॥

छिपे आड़ में रह जाने से यों अब नहीं चलेगा (অমন আড়াল দিয়ে লুকিয়ে গেলে)

छिपे आड़ में रह जाने से यों अब नहीं चलेगा; आ जाओ, इस अन्तस्तल में आ करके छिप बैठो। कोई नहीं जान पाएगा, कोई कुछ न कहेगा । लुका-छिपी है लखी तुम्हारी- अखिल विश्व में, देश-देश में; कहो कि मेरे मन में पकड़े जाओगे, न छलोगे । छिपे आड़ में रह जाने से यों अब नहीं चलेगा ॥ जान रहा हूँ कठिन हृदय यह- नहीं चरण रखने लायक है; सखे ! तुम्हारी हवा हृदय में लग जाए यदि, फिर भी- क्या न प्राण- पाषाण कड़ा यह मेरा कभी गलेगा ? न हो साधना चाहे मेरी, प्राप्त अगर हो कृपा तुम्हारी, नहीं खिलेगा फूल, न कोई फल क्या कहीं फलेगा ? छिपे आड़ में रह जाने से यों अब नहीं चलेगा ॥

दर्शन यदि पाऊँ न तुम्हारा, हे प्रभु! मैं इस जीवन में (যদি তোমার দেখা না পাই প্রভু)

दर्शन यदि पाऊँ न तुम्हारा, हे प्रभु! मैं इस जीवन में, नहीं कभी फिर पाऊँ तुमको, याद रहे जैसे मन में । ताकि भूल जाऊँ न, वेदना रहे शयन में, स्वप्न में ॥ इस संसार-हाट में मेरे दिन जितने भी कट जाएँ, दोनों हाथ भले ही ये जितने भी धन से भर जाएँ; प्राप्ति नहीं है तब भी कुछ यह बात रहे मेरे मन में । ताकि भूल जाऊँ न, वेदना रहे शयन में, स्वप्न में ॥ यदि आलस से रहूँ बैठ मैं कभी किसी पथ पर यों ही, पड़ा रहूँ यदि बिस्तर अपना डाल यत्न से रज में ही; शेष पड़ा है पथ, जैसे यह याद रहे मेरे मन में; ताकि भूल जाऊँ न, वेदना रहे शयन में स्वप्न में ॥ चाहे जितना आवे हँसना, बजे जितनी घर में वंशी, चाहे करूँ सजावट जितनी भी अच्छी अपने घर की; तुम्हें न लाया जाना हुआ, रहे यह बात याद मन में । ताकि भूल जाऊँ न, वेदना रहे शयन में, स्वप्न में ॥

लखता हूँ विरह तुम्हारा राजित अहरह भुवन-भुवन में (হেরি অহরহ তোমারি বিরহ)

लखता हूँ विरह तुम्हारा राजित अहरह भुवन-भुवन में; शोभित है कितने ही रूपों में नभ सागर गिरि-वन में । रात-रात भर ताराओं में विद्यमान अनिमेष नयन; पल्लव-दल श्रावन-वर्षण में विरह तुम्हारा दीपित है। घर-घर कितने ही दर्दों में, प्रेम-वासनाओं में भी, कितने ही सुख-दुःख-कर्मों में विरह तुम्हारा चर्चित है। सारे जीवन को उदास कर कितने ही गानों में स्वर भर, विरह तुम्हारा ही रह-रहकर मन में चिर अनुगुंजित है ॥

जागे, हे प्रभु ! नेत्र तुम्हारे हित ये (প্রভু তোমা লাগি আঁখি জাগে)

जागे, हे प्रभु ! नेत्र तुम्हारे हित ये । देख न पाए, पथ निहारते, वह भी अच्छा मन में सतत लगे । हृदय द्वार पर, बैठ धूल पर भिक्षुक बन तव करुणा, प्रभु! माँगे । कृपा न पाते, मात्र चाहते, वह भी अच्छा मन में सतत लगे । आज जगत में, कितने सुख में तथा काम में चले गए हैं सब-के-सब आगे । मिले न साथी, लखे तुम्हें ही, वह भी अच्छा मन में सतत लगे । सुधा चतुर्दिक् पूर्ण विविध विध श्यामल व्याकुल प्रेमिल रूलवावे । मिले न दर्शन, व्यथा विवर्तन वह भी अच्छा मन में सतत लगे ॥

धन-जन से परिपूर्ण आज हूँ मैं (ধনে জনে আছি জড়ায়ে হায়)

धन-जन से परिपूर्ण आज हूँ मैं, फिर भी तुम्हें चाहता मन मेरा । अन्तस्तल में तुम विराजते हो, अन्तर्यामी ! मुझे जानते हो; सुख-दुःख में सब भूला हूँ, तब भी- तुम्हें चाहता रहता मन मेरा ॥ अहंकार मैं त्याग नहीं पाता, सिर पर भार वहन करता-फिरता; त्याग अगर पाता तो बच जाता । तुम्हें चाहता रहता मन मेरा ॥ जो कुछ है मेरा, तुम वह सारा- ले लोगे कब अपने हाथों में खुद ? सब कुछ छोड़ तुम्हें पा जाऊँ जिससे । चाह रहा है सतत तुम्हें मन मेरा ॥

यही तुम्हारा प्रेम, यही है हृदय-हरण ! (এই যে তোমার প্রেম ওগো হৃদয়হরণ)

यही तुम्हारा प्रेम, यही है हृदय-हरण ! पत्तों पर आलोक नाचता स्वर्णवरण ! वह जो आलसपूर्ण मेघ है नभतल में, यह जो पवन देह पर करता अमृतक्षरण, यही तुम्हारा प्रेम, यही है हृदय-हरण ! प्रातः प्रकाश में मेरे नयन बहे हैं, यही, प्रेम की वाणी तव, प्राणों में है। यही तुम्हारा प्रेम, यही है हृदय-हरण ॥ निखर रहा है आनन रुचिर तुम्हारा ही, मुखमंडल पर मेरे गड़े नयन तव हैं। आज हृदय ने मेरे तव छू लिये चरण । यही तुम्हारा प्रेम, यही है हृदय-हरण ! ॥

मैं तो यहाँ रहा हूँ गाने को ही गीत तुम्हारा (আমি হেথায় থাকি শুধু গাইতে তোমার গান)

मैं तो यहाँ रहा हूँ गाने को ही गीत तुम्हारा; देना अपनी जगत-सभा में स्थान मुझे थोड़ा-सा । मैन रहा हूँ किसी काम का, नाथ ! तुम्हारे भव में; इस अकर्म के प्राण रहे बजते अपने ही स्वर में । करूँ रात को नीरव मन्दिर में आराधन जब मैं, आदेशित करना तब मुझको, हे राजन ! गाने को । प्रातः जब झंकृत हो वीणा नभ में स्वर्णिम स्वर में, दूर नहीं रह जाऊँ तब मैं, मिले मान इतना सा ॥

करो, भंग भय मेरा कर दो (দাও হে আমার ভয় ভেঙে দাও)

करो, भंग भय मेरा कर दो; मुखड़ा मेरी ओर घुमाओ । परख न पाता यद्यपि पास मैं, हेरूँ क्या, किस ओर, भला, मैं ? तुम हो मेरे हृदय-विहारी, हँस-हँस मेरी ओर निहारो ॥ करो बात, कुछ बोलो मुझसे, स्पर्श तुम्हारा हो इस तन से; दायाँ हाथ बढ़ाकर अपना- रखो उठाए ही तुम मुझको ॥ सही नहीं, जो बूझ रहा मैं, खोज रहा जो भूल खोज है; हँसना मिथ्या, मिथ्या रोना, सम्मुख होकर भूल मिटा दो ॥

मेरे मन को इनने फिर से घेर लिया है (আবার এরা ঘিরেছে মোর মন)

मेरे मन को इनने फिर से घेर लिया है। पुनः आवरण का घेरा इन आँखों पर है ॥ भाँति-भाँति की बातें फिर हैं जमी हुईं, भ्रमित चित्त है मेरा कई दिशाओं में; दाह उठा करता है फिर-फिर क्रम-क्रम से, खो देते श्रीचरण पुनः ये मुझसे हैं ॥ तव नीरव वाणी जो मेरे हृत्तल में, डूब जाय मत लोगों के कोलाहल में । सबके बीच रहो तुम मेरे साथ सदा, मुझे छिपाए रखो निरन्तर अपने में; रखो चेतना पर मेरी आलोक भरा- यह उदार त्रिभुवन नियत चिरकाल किए ॥

मुझसे मिलने हेतु, न जानें (আমার মিলন লাগি তুমি আসচ কবে থেকে)

मुझसे मिलने हेतु, न जानें, आते हो तुम कब से; कहाँ तुम्हारे चन्द्र-सूर्य ये तुम्हें रखेंगे ढँक के ? कई बार ही सुबह-शाम है पगध्वनि हुई तुम्हारी; गोपन में इस हृदय-बीच है दूत पुकार गया मुझको । पथिक! आज मेरे प्राणों में, मानो, हो परिव्यापित- विपुल हर्ष रह-रहकर जैसे कम्पित हो-हो उठता । मानो, आज समय आ पहुँचा, काम समाप्त सभी हैं; महाराज ! आता समीर है- सौरभ लिये तुम्हारा ॥

यहाँ गीत जो गाने को मैं आया (হেথা যে গান গাইতে আসা আমার)

यहाँ गीत जो गाने को मैं आया, नहीं गीत वह मैं तो हूँ गा पाया; आज तलक स्वर ही साधा है मैंने, केवल कुछ गा लेना ही है चाहा । स्वर थोड़ा भी सध न सका है मेरा, वाक्यों में न शब्द अब तक बँध पाये; गा पाने की व्याकुलता ही केवल रही उभरती है प्राणों में मेरे । खिला नहीं है फूल आज तक भी तो, चलती रही हवा ही केवल अब तक । देख न पाया हूँ मुखड़ा मैं उसका, सुन न सका हूँ मैं तो उसकी वाणी; पगध्वनि ही मैं पल-पल सुनता उसकी, मेरे दर होकर वह आता-जाता ! मात्र बिछाने में ही आसन, मेरा- चला गया है दिन सारे-का-सारा; घर में दीपक जला नहीं मैं पाया, भला, बुला पाऊँगा उसको कैसे ? पाने की आशा लेकर हूँ बैठा, पा न सका हूँ अब तक दर्शन उसके ॥

जो खो जाय उसे पाने की आशा में (যা হারিয়ে যায় তা আগলে বসে)

जो खो जाय उसे पाने की आशा में बैठा कब तक और रहूँ ? और नहीं, हे नाथ ! रात-भर चिन्ता में जागा मैं रह सकता हूँ । रात्रि-दिवस मैं हूँ अब तक द्वार बन्द कर पड़ा हुआ; आना जो चाहे उस पर सन्देह किए भगा दिया मैं करता हूँ ॥ नहीं किसी का आना होता इसीलिए मेरे एकाकी घर में; भुवन तुम्हारा मोद-भरा करता रहता- खेला ( अविरत ) बाहर में । पथ मिलता न तुम्हें भी ज्यों, आ-आकर फिर जाते हो; जिसे चाहता हूँ मैं रखना वह भी तो रहता न, धूल हो जाता है ॥

मलिन वसन यह त्याग डालना (এই মলিন বস্ত্র ছাড়তে হবে)

मलिन वसन यह त्याग डालना होगा अब तो, अजी ! त्याग त्यागना ही होगा । धूमिल है यह अहंकार से मेरे, धूल धूसरित दिन के कामों से; दागदार है इतनें दागों से, हुआ तप्त इतना ज्यादा जिससे- भार वहन करना है कठिन हुआ । धूमिल इतना अहंकार मेरा ॥ काम समाप्त हुए अब दिवसावसान में, हुआ समय उनके आने का, आशा मन में । चलो, स्नान कर अब तो आना है; वसन प्रेम का धारण करना है। सान्ध्य विपिन के कुसुम तोड़कर (चलो, चलो अब ) हार गूँथना है । आओ, जी ! आ जाओ अब तो समय नहीं है ॥

जगी पुलक है मेरे मन में (গায়ে আমার পুলক লাগে)

जगी पुलक है मेरे मन में, नयनों में घनघोर; किसने मेरे उर में बाँधी है राखी की डोर ? आज यहाँ इस नभतल में, जल, थल, फूल और फल में, कैसे कैसे लुभा रखा है तुमने मनोहरण मन मोर ! कैसा खेला हुआ तुम्हारे साथ आज है, पाया, मन में सोच नहीं पाया था जैसा । आनन्द आज किस छल से, चाहे बहना दृग-जल से ! किया विरह ने आज मधुर हो प्राणों को है भोर ॥

आज रखो मत, हे प्रभु ! अपना (প্রভু আজি তোমার দক্ষিণ হাত)

आज रखो मत, हे प्रभु ! अपना दायाँ हाथ छिपाये; आया हूँ, हे नाथ! तुम्हें मैं पहनाने को राखी । बाँध सकूँ यदि हाथ तुम्हारे, बँध जाऊँगा साथ सभी के; जहाँ कहीं जो होगा, कोई- भी न रहेगा बाक़ी ॥ अपने और पराये का कुछ भेद नहीं रह जाए; तुम्हें एक ही लख पाऊँ मैं घर-बाहर में जैसे । तुमसे बिछुड़े इधर-उधर जो रोते फिरते हैं दुःखित हो, तुम्हें पुकारूँ करने को वह दुःख- दूर तनिक क्षण भी ॥

मिला जगत-आनन्द-यज्ञ में (জগতে আনন্দ যজ্ঞে আমার নিমন্ত্রণ)

मिला जगत-आनन्द-यज्ञ में मुझको है आमन्त्रण; धन्य-धन्य हो गया आज यह मेरा मानव जीवन । साध मिटाती फिरतीं मेरी आँखें रूप-नगर में। श्रवण मगन रहते हैं मेरे किसी गम्भीर स्वर में । भार मिला है मुझे यज्ञ में मैं बाँसुरी बजाऊँ; हास्य- रुदन अपने प्राणों का गायन में भर लाऊँ । हुआ समय, क्या तुम्हें सभा में जाकर मैं लख पाऊँ ? यही निवेदन है मेरा- जयगान सुना मैं आऊँ |

अलोकित करते प्रकाश को (আলোয় আলোকময় করেহে)

अलोकित करते प्रकाश को आलाकों के आलोक पधारे; अन्धकार आ करके उसमें मिला, मिला नयनों से मेरे । पूर्ण गगन, सम्पूर्ण धरा, अग जग है आनन्द-भरा; अच्छे-ही-अच्छे लगते सब नयन जिधर हैं पड़ते मेरे ॥ तरु- पत्रों पर नर्त्तन करते तव प्रकाश से प्राण विलोड़ित; नीड़ों में है तव प्रकाश से खगरव पल-पल मधुर जागरित । तव प्रकाश है प्रेम सँजोए पड़ा देह पर मेरी आके; फेरे हैं, फेरे जिसने निज- निर्मल हाथ हृदय पर मेरे ॥

आसन के नीचे की मिट्टी में (আসন তলের মাটির পরে লুটিয়ে রব)

आसन के नीचे की मिट्टी में मैं ढँका रहूँगा; धूल-धूसरित तव चरणों की रज में पड़ा रहूँगा । मान दिये यों दूर किए क्यों रखते हो तुम मुझको ? भूल न जाना इस प्रकार तुम जीवन-भर को मुझको ! दो न मुझे सम्मान भले, तव चरण तले रह लूँगा । धूल-धूसरित तव चरणों की रज में पड़ा रहूँगा ॥ रह लूँगा मैं सतत तुम्हारे यात्रीदल के पीछे; स्थान तनिक दे देना कृपया मुझे सभी के नीचे। दौड़े आते हैं प्रसाद के हेतु लोग कितने ही; मैं तो कुछ भी चाहूँगा न, रहूँगा सब लखते ही शेष रहेगा जितना ही, मैं उतना ही ले लूँगा । धूल-धूसरित तव चरणों की रज में पड़ा रहूँगा ॥

रूप-जलधि में दी है मैंने डुबकी (রূপসাগরে ডুব দিয়েছি)

रूप-जलधि में दी है मैंने डुबकी, आस लगाए हुए अरुप-रतन की; घाट-घाट पर भटका अब न करूँगा, ( कहीं) डुबोता अपनी यह जीर्ण तरी । अबकी बार समय जब भी आवेगा, लहरों की टकराहट से बचने का, सुधा-स्नात हो जाऊँगा मैं, फिर तो- मुत्यु प्राप्त होकर भी अमर रहूँगा । गान कान से सुना नहीं जो जाता, नित्य हुआ करता है वह गान जहाँ ; उसी अतल की सभा बीच मैं अपने प्राणों की वीणा लेकर पहुँचूँगा । चिर दिन के स्वर को बाँधे जब उसके शेष गान में रोदन उसका उभरे, जो नीरव है उसके चरणों पर मैं अपनी नीरव वीणा यह रख दूंगा ॥

यहीं हमारे घर में उनने डेरा (হেথায় তিনি কোল পেতেছেন)

यहीं हमारे घर में उनने डेरा अपना डाला है; आसन उनका मन से, भाई ! अच्छी तरह लगा तो दो । गाना गाते हुए खुशी से झाड़ धूल-धुक्कड़ सब दो; जो भी हो आवर्जन, सबको दूर यत्न से कर डालो ! जल के छींटे दे फूलों को साजी में भर कर रख लो; आसन उनका मन से, भाई ! अच्छी तरह लगा डालो॥ वास यहाँ दिन-रात हमारे घर में उनका रहता है; हास उन्हीं का तो प्रभात में नव प्रकाश बिखराता है। ताकि सबेरा होते ही हम जाग जाएँ आँखें खोले; निरख रहे हैं खुश होकर वे दिख पड़ता तो हम सब को ! उनकी ही खुशियाली से यह भरा हुआ घर सारा है; हास उन्हीं का तो प्रभात में नव प्रकाश बिखराता है। यहाँ हमारे घर में वे एकाकी बैठे रहते हैं; चाहे किसी काम से हम सब चले कहीं भी जाते हैं। दरवाजे के पास हमें वे आगे करके जाते हैं। मन के सुख से हम सब पथ पर आगे बढ़ते जाते हैं। दिवस- शेष में जब हम अपने घर को वापस आते हैं, तभी अकेले घर में बैठे देख उन्हें हम पाते हैं। यहाँ हमारे घर में वे तो बैठे जागे रहते हैं; जब हम अपनी शय्याओं पर विस्मृत सोये रहते हैं ॥ जग में कोई देख न पाता छिपी हुई बाती उनकी; ओट किए आँचल से जो है सारी रात जला करती । सोये में कितने ही सपने आते-जाते रहते हैं; अन्धकार में यहाँ हमारे घर में वे तो हँसते हैं॥

निभृत प्राण के देवता (নিভৃত প্রাণের দেবতা)

निभृत प्राण के देवता, जहाँ अकेले जागते, भज्ञक्त ! खोल दो द्वार, करूँगा दर्शन मैं उनके ! दिन-भर बाहर-बाहर ही किसे ढूँढ़ते फिरते हो ? सान्ध्यकाल की आरती करना हमें नहीं आया। तव जीवन आलोक से जला दीपक जीवन का, आज, पुजारी ! निभृत क्षण में सजा लूँ अपनी थाल । जहाँ निखिल की साधना करे पुजापा की रचना; वहाँ धरूँगा मैं भी अपनी ज्योति-रेखा ॥

किस प्रकाश से जला प्राण का (কোন আলোতে প্রাণের প্রদীপ)

किस प्रकाश से जला प्राण का दीप धरा पर आते हो तुम ? हे साधक, हे प्रेमिक, हे विक्षिप्त ! धरती पर आते हो तुम । इस अकूल संसार में दुखाघात तव प्राणों में वीणा झंकारे; घोर विपत् के बीच भी किस जननी के मुख की हँसी देख तुम हँसते ? तुम किसके सन्धान में सभी दुखों पर आग लगाए फिरते हो यों ? ऐसा व्याकुल करके कौन रुलाए तुम्हें कि जिससे प्यार तुम्हें है ? चिन्ता तुम्हें न कुछ भी, कौनतुम्हारा साथी है, मैं सोचा करता; मरण तक को तुम भूले, किस अनन्त प्राण- उदधि में रहते हो बहते ?

"तुम मेरे अपने हो, मेरे ही समीप हो" (তুমি আমার আপন, তুমি আছ আমার কাছে)

"तुम मेरे अपने हो, मेरे ही समीप हो"- कहने दो यह बात मुझे तुम, कह लेने दो; "तुम में मेरे जीवन के आनन्द सभी हैं" - कहने दो यह बात मुझे तुम, कह लेने दो ! मुझे सुधामय स्वर-सुर दो, मेरी वाणी मधुर करो; हे मेरे प्रियतम ! यह अपनी- बात बोलने दो मुझको तुम, कह लेने दो । यह समस्त आकाश-धरा, तुमसे ही यह भुवन भरा; मुझे हृदय से कहने दो यह, कह लेने दो । दुःखी समझ समीप आओ, छोटा समझ प्यार निज दो; अपने छोटे मुँह से मुझको यह कहने दो। कहने दो यह बात मुझे तुम, कह लेने दो ॥

लो उतार तुम, लो उतार निज पदतल पर मुझको (নামাও নামাও আমায় তোমার)

लो उतार तुम, लो उतार निज पदतल पर मुझको; विगलित कर मन जीवन को दो डुबो नयन-जल में। मैं एकाकी अहंकार के उच्च शिखर पर हूँ, मिला धूल में दो भंग कर इस प्रस्तर-आसन को । लो उतार तुम, लो उतार निज पदतल पर मुझको ॥ गर्व करूँगा क्या लेकर मैं नश्वर जीवन में? बना हुआ हूँ शून्य तुम्हारे बिना भरे घर में । मेरा दैनिक कर्म अतल में डूब गया जब है, मेरी सन्ध्या-पूजा निष्फल चली नहीं जाए। लो उतार तुम, लो उतार निज पदतल पर मुझको ॥

अपने सिंहासन से नीचे उतरे (তব সিংহাসনের আসন হতে)

अपने सिंहासन से नीचे उतरे आकर मेरे घर के दरवाजे के पास, नाथ! तुम खड़े हुए, कुछ ठहरे। मैं बैठा एकाकी मन-ही-मन था, मगन गीत गाने में अपना कोई; पड़ा तुम्हारे कानों में स्वर इसका - जैसे ही, तुम उतर पड़े झट नीचे । आकर मेरे घर के दरवाजे के- पास, नाथ! तुम खड़े हुए, कुछ ठहरे ॥ नाथ ! तुम्हारी सभा बीच कितने ही होते गायन, गुणी अनेक वहाँ हैं; गाय इस गुणहीन व्यक्ति का, फिर भी- पड़ा, प्रेम के कारण, तुम्हें सुनाई । एक करुण स्वर मिला विश्व के स्वर में लेकर वरण-हार तुम कर में उतरे; आकर मेरे घर के दरवाजे के- पास, नाथ! तुम खड़े हुए, कुछ ठहरे ॥

अपना लो इस बार मुझे (তুমি এবার আমায় লহ হে নাথ)

अपना लो इस बार मुझे, हे नाथ! मुझे अपना लो; लौट नहीं जाना अबकी तुम, हृदय खोल अपना लो । जो दिन बीते बिना तुम्हारे, नहीं चाहता आवें फिर वे, मिल जाएँ वे धूल में।. अर्पित कर मैं जीवन अहरह तव प्रकाश में जगा रहूँ ॥ जानें, किसकी बातों पर मैं रहा भटकता वन- प्रान्तर में- इधर-उधर चिर आवेशित हो ! अब मेरे अन्तस्तल के ढिग मुख अपना रख करके अपनी- बात मुझे सब कह डालो ॥ कितने कलुष, न जानें, कितनी छलनाएँ हैं अब भी मन में ! मुझे न उनके हेतु फिराओ, उन्हें आग में दे डालो ॥

सूख जाय जब जीवन (জীবন যখন শুকায়ে যায়)

सूख जाय जब जीवन, करुणा-धारा बन तुम आना; चूक जाय जब सकल माधुरी गीत-सुधा बन आना । धरे प्रबल आकार कर्म जब, ढँक ले चतुर्दिशाएँ; हृदय-प्रान्त में नीरव, प्रभु ! तुम शान्त चरण धर आना । अपने को जब कृपण बनाए कोने में मन पड़ा रहे; द्वार खोलकर हे उदार ! तब राज- समारोह-सा आना । अब अबोध को विपुल धूल से भुला वासना रख ले; हे पवित्र ! तब, हे अनिन्द्र ! तुम रुद्र- प्रकाश-सा आना ॥

अब नीरव कर डालो अपने (এবার নীরব করে দাও হে তোমার)

अब नीरव कर डालो अपने अहे ! मुखर इस कवि को; हृदय-बाँसुरी लो निकाल तुम- इसकी, स्वयं बजाओ । इस निशीथ के निविड़ तिमिर में गहन तान वंशी में भर दो; ग्रह- शशि के उस सधन तान से अति अवाक् कर दो। जो कुछ मुझमें जड़ा हुआ है जीवन और मरण में; गायन के स्वर से जुड़ जाए आ तव युगल चरण में । विगत दिनों की बातें सारी निमिष मात्र में ही दह जाएँ; बैठ अकेला सुनूँ बाँसुरी मैं चिर अकुल तिमिर में

निद्रामग्न विश्व जब सारा (বিশ্ব যখন নিদ্রা মগন)

निद्रामग्न विश्व जब सारा, अन्धकार जब नभ में, भर जाता झंकार कौन मम- वीणा के तारों में ? नयनों से निद्रा निकाल ली, छोड़ बिछावन मैं उठ बैठूं; आँखें खोल निहारूँ, फिर भी देख न उसको पाऊँ ! प्राण उठा करते हैं मेरे बार-बार हो कम्पित; जानें, कौन विपुल वाणी वह तिरती व्याकुल सुर में। क्या जानें, वह व्यथा कौन है, अश्रुभरित यह मन है जिसमें; अपना कंठहार मैं किसको पहना देना चाहूँ ?

पगध्वनि उसकी सुनी नहीं क्या तुमने ? (তোরা শুনিস্‌ নি কি শুনিস নি কি তার পায়ের ধ্বনি)

पगध्वनि उसकी सुनी नहीं क्या तुमने ? आता है वह, आता है, आता है। युग-युग, पल-पल, निशि-वासर चिर दिन ही आता है वह, आता है, आता है। गान किए हैं जब हैं जब भी मैंने जितने, पागल-जैसे जब भी मन में अपने; आगमनी उसकी ही सब में बजती। आता है वह, आता है, आता है । जानें, कब-कब फागुन में वन-पथ पर, आता है वह, आता है, आता है । श्रावन-तम में में कितने ही घन-रथ पर, आता है वह, आता है, आता है । दुःख-पर-दुःख ही रहें जहाँ जितने भी, पदरव लगता उर पर है उसका ही; फिरा परशमणि देता है वह सुख में ! आता है वह, आता है, आता है ।

मानी मैंने हार मान अब ली है (মেনেছি হার মেনেছি)

मानी मैंने हार मान अब ली है। तुम्हें ठेलने गया जहाँ मैं जितना, उतनी ही क्षति मैंने अपनी की है ॥ मेरे चित्त-गगन से तुम्हें ढँके जो रक्खें, किसी भाँति वह हो न सकेगा, मैंने- बार-बार यह बात जान रक्खी है। वह अतीत जीवन, छाया के जैसा, पीछे-पीछे चलता ही रहता है; कितने ही माया-वंशी के स्वर में मुझको व्यर्थ बुलाता ही रहता है। छूटा उसका साथ है, पड़ा तुम्हारे हाथ में; जो कुछ भी है इस जीवन में मेरे, लाए सभी तुम्हारे ही द्वारा हैं ॥

एक-एक कर अपने तार पुराने खोलो (একটি একটি করে তোমার)

एक-एक कर अपने तार पुराने खोलो। नए सिरे से अब सितार का साज सजा लो ॥ टूट चुका है दिन का मेला, सभा लगेगी सन्ध्या बेला; अन्तिम राग बजावेगा जो हुआ समय उसके आने का । नए सिरे से अब सितार का साज सजा लो ॥ द्वार खोल दो अपना नभ के अन्धकार में; सप्त लोक की नीरवता आवे तव घर में । इतने दिन जिनने गाए हैं गान, आज उन्हीं से हो उनका अवसान। यही मन्त्र जो यन्त्र तुम्हारा है, यह भूलो। नए सिरे से अब सितार का साज सजा लो ॥

कब मैं आया बाहर गाता गीत तुम्हारा ही (কবে আমি বাহির হলেম তোমারি গান গেয়ে)

कब मैं आया बाहर गाता गीत तुम्हारा ही; नहीं आज की बात, नहीं यह बात आज की है ! भूल गया हूँ, कब से तुमको रहा ताकता मैं; नहीं आज की बात, नहीं यह बात आज की है ॥ निर्झर जैसे बाहर आता, नहीं जानता, किसे चाहता; वैसे ही मैं धावे आया- साथ लिये जीवन की धारा । नहीं आज की बात, नहीं यह बात आज की है ॥ कितने ही नामों से टेरे, कितने ही हैं चित्र उँकेरे, चला किया हूँ किस उमंग से नहीं ठिकाना उसका कोई नहीं आज की बात, नहीं यह बात आज की है ॥ जैसे पुष्प प्रकाश हेतु है रात काट लेता अनजाने; वैसे ही यह हृदय तुम्हारे हेतु लगा रहता है। नहीं आज की बात, नहीं यह बात आज की है ॥

प्रेम वहन कर सकूँ तुम्हारा (তোমার প্রেম যে বইতে পারি)

प्रेम वहन कर सकूँ तुम्हारा, ऐसी शक्ति नहीं है; इस जगती में बात तुम्हारे- मेरे बीच यही है । नाथ ! कई व्यवधान रखे हैं यहाँ कृपाकर तुमने; सुख-दुःख-धन-जन मान, न जानें, बेड़े हैं ये कितने ! दर्शन का आभास ओट से यदा-कदा तुम देते; श्यामल घन के अन्तराल से छिटके रवि-कर जैसे ॥ शक्ति, वहन करने को देते प्रेम-भार तुम जिसको, उसका सारा परदा बिलकुल हटा दिया करते हो । आड़ न उसके घर की रखते, और न उसके धन की; लाकर पथ पर कर देते हो उसे अकिंचन् सच ही । उसे मान-अपमान न लज्जा या भय ही रह जाता; एक तुम्हीं रह जाते उसके विश्व-भवनमय सारा । ऐसा ही ही आमने-सामने सतत तुम्हारा रहना; मात्र तुम्हीं से प्राण सर्वदा पूर्ण किए है रखना । मिली दया यह जिसको, उसके- नहीं लोभ की सीमा; तुम्हें ठाँव देने को अपना त्याग लोभ दे सारा ॥

सुन्दर ! आज पधारे थे तुम प्रातः (সুন্দর, তুমি এসেছিলে আজ প্রাতে)

सुन्दर ! आज पधारे थे तुम प्रातः, अरुण वरण का पारिजात ले कर में। निद्रित पुरी, न पथ पर था कोई राही; चले गए तुम स्वर्णिम रथ पर एकाकी; मेरी खिड़की के समीप कुछ रुककर- झाँक लिया था तुमने करुण नयन से । स्वप्न भरा था मेरा किस सौरभ से ! घर का तम था अति प्रसन्न हो कम्पित; पड़ी धूल में नीरव वीणा मेरी- हो उठी अनाहत ही थी तब स्पन्दित । कई बार चाहा था- मैं उठ बैठूँ, और त्याग आलस पथ पर जा पहुँचूँ; किन्तु, उठा जब तब तुम चले गए थे। लगता है, तव दर्शन पुनः न होंगे सुन्दर ! आज पधारे थे तुम प्रातः, अरुण वरण का पारिजात ले कर में ॥

जब था मेरा खेल तुम्हारे साथ (আমার খেলা যখন ছিল তোমার সনে)

जब था मेरा खेल तुम्हारे साथ, कौन जानता था तब तुम हो कौन ? भय था कुछ भी नहीं, न मन में लाज, रहा न करता था जीवन जब शान्त । सुबह-सुबह तुम करते रहे पुकार, मेरे अपने सखा सरिस हर बार; हँसते-हँसते सदा तुम्हारे साथ घूमा करता था मैं वन-पथ-प्रान्त ॥ तब तुम गाया करते थे जो गीत, कौन जानता था तब उसका अर्थ ? मात्र साथ थे गाते मेरे प्राण, नाचा करता था यह हृदय अशान्त । खेल खत्म हो चुके सभी जब आज, देख रहा हूँ मैं तो दृश्य हठात् रवि- शशि नीरव और स्तब्ध आकाश- घूम रहे तव चरण- तले नतशीश ! स्तम्भित आज भुवन एकान्त ॥

तरी खोल दी उसने, यह लो (ঐ রে তরী দিল খুলে)

तरी खोल दी उसने, यह लो, कौन तुम्हारा बोझ उठावे ? अजी ! सामने जब जाओ तो कुछ भी पड़ा रहे मत पीछे; उसे पीठ पर ले चलने में रहे कूल पर तुम एकाकी । घर का बोझ उठाए तुमने डाल दिया उस पार घाट पर; तुम्हें इसी से आवाजाही- करना फिर-फिर पड़ा, न भूलो। अजी ! पुकारो अब माँझी को, भले, बोझ बह जाय तुम्हारा; अब उजाड़कर जीवन अपना- सौंप चरणतल पर दो उसके ॥

मौन भंग कर बात न अपनी कहो (ওগো মৌন, না যদি কও)

मौन भंग कर बात न अपनी कहो अगर तो, कर लूँगा तव नीरवता मैं वहन वक्ष-भर । स्तब्ध हुआ मैं पड़ा रहूँगा रजनी जैसे- ताराओं को जला रहा करती है धैर्य धरे । होगा प्रातःकाल, अँधेरा छँट जाएगा; फूटेगी तव स्वर्णिम वाणी नभ को फाड़े। जाग उठेगा तब मेरे खग के खोते में, गीत तुम्हारी भाषा में, तब जिसके स्वर से - फूल खिला देगी मेरी वनलता नहीं क्या ?

जब-जब करना चाहा प्रकाश मैंने (যতবার আলো জ্বালাতে চাই)

जब-जब करना चाहा प्रकाश मैंने, बार-बार बुझ जाता दीप रहा है ! मेरे जीवन में चिर दिन तव आसन गहन अँधेरे में ही रहा किया है ! सूख गया हो मूल लता का जब जो, लगती कली न फूल कभी खिलता है; मेरे जीवन में होती तव सेवा- मात्र वेदनाओं के उपहारों से ॥ पूजा का गौरव या विभव पुण्य का, लेश मात्र भी नहीं कभी मिल पाता; दीन वेश लज्जा का धारण करके आया यहाँ पुजारी आज तुम्हारा । उत्सव में न पधारा उसका कोई, बजी नहीं बाँसुरी, न गेह सजग है; जीर्ण-शीर्ण दरवाजे पर मन्दिर के क्रन्दन करते इसने तुम्हें बुलाया है ॥

सबसे आड़ किए रख सकूँ तुम्हें मैं (সবা হতে রাখবো তোমায়)

सबसे आड़ किए रख सकूँ तुम्हें मैं, वैसा पूजा-स्थान कहाँ कहाँ इस घर में? अगर अहर्निश मुझको यहाँ साथ सब ही के करके कृपा पकड़ में आओ, पकड़े रखूँ तुम्हें मैं । मान तुम्हें दूँ, मैं कब वैसा मानी ? पूजा करूँ तुम्हारी कैसे, स्वामी ! अगर प्यार हो तुम से स्वतः बजेगी वंशी, स्वतः फूल खिल आएँगे तब, हे प्रिय ! कानन में॥

बजती तव बाँसुरी ब्रज में (বজ্রে তোমার বাজে বাঁশি)

बजती तव बाँसुरी ब्रज में, वह क्या कोई सहज गान है ! जाग सकूँ मैं उसके स्वर से ऐसा कोई श्रवण मुझे दो ! भूलूँ नहीं सहज ही में मैं, मत्त हृदय हो उसी प्राण में; मृत्यु बीच चिर ढँका हुआ है अन्तहीन जो प्राण । सह लूँ झड़ी खुशी से वह मैं निज मन-वीणा के तारों में; दसों दिशाओं, सप्त सिन्धु को नचा रहे हो जिस झंकार से; करके विश्राम-विरत मुझको उसी गम्भीर नाद में ले लो, जहाँ अशान्ति के भीतर प्राप्त हो महानतम शान्ति ॥

तुम्हें दया कर धोना होगा (দয়া দিয়ে হবে গো মোর)

तुम्हें दया कर धोना होगा जीवन मेरा; छू पाऊँगा नहीं, अन्यथा, चरण तुम्हारे । पूजा की डाली देने में- तुम्हें, उभर आती है कालिख; अपने प्राण न रख पाता हूँ तभी तुम्हारे चरणों पर मैं । अब तक कोई व्यथा नहीं थी मुझको अपनी, अंग-अंग में सिर्फ मलिनता जमी हुई थी; आज उसी शुचि क्रोड़ हेतु यह व्याकुल हृदय रुदन करता है; नहीं पड़ा अब रहने देना मुझे धूल पर ही ॥

सभा भंग जब होगी तब क्या (সভা যখন ভাঙবে তখন)

सभा भंग जब होगी तब क्या शेष गान मैं गा जाऊँगा ? हो सकता है, कंठहीन हो रहूँ ताकता तव मुख को मैं । अब भी तो स्वर सधा नहीं है, बज पाएगा राग वही क्या ? प्रेम-व्यथा तब स्वर्णिम स्वर में सान्ध्य गगन क्या फेंक न देगा ? अब तक स्वर स्वर जो साधा मैंने दिवा-रात्रि मन-ही-मन अपने, अगर भाग्य से वही साधना हो जाए समाप्त जीवन में; वाणी तब इस जन्म-काल की पद्म सभी इस मानस-वन के विश्व-गीत की धारा होकर बहा शेष-सागर में दूँगा ॥

चिर जन्म की वेदना (চির জনমের বেদনা)

चिर जन्म की वेदना, चिर जीवन की साधना; धधक उठे अब आग तुम्हारी; दुर्बल समझ कृपा मत करना । ताप सहन करना है मुझको, क्षार-क्षार हो वासना । दो, अचूक आवाज मुझे दो, अब न विलम्ब बेकार और हो; जुड़े वक्ष से जो हैं बन्धन, गिरें टूटकर वे सब पीछें घोर शब्द कर शंख तुम्हारा- आज ध्वनित हो उठे शीघ्रतर; टूटे गर्व, नींद अब छूटे, जागे सत्वर चेतना ॥

गाने को जब कहते हो तुम मुझको (তুমি যখন গান গাহিতে বল)

गाने को जब कहते हो तुम मुझको, गर्वित हो उठती है छाती मेरी; हो जाती हैं छलछल दोनों आँखें, क्षण-विस्मृत अवलोक तुम्हारे मुख को । कटु-कठोर जो प्राणों में हैं मेरे अमृत-गान से गल जाने को होते; सकल साधना-अर्चाएँ तब मेरी उड़ा चाहती हैं पक्षीवत् सुख से ! होती तृप्ति तुम्हें मेरे गायन से, अच्छा लगता तुम्हें गीत है मेरा; ज्ञात मुझे है-गायन के ही बल पर बैठ तुम्हारे सम्मुख मैं हूँ पाता । मन के द्वारा बोध न होता जिसका, छू लेता वह चरण गीत द्वारा मैं ; भूल स्वयं को, निज स्वर को मैं जाता, प्रभु को अपना बन्धु तभी कह पाता ॥

धावे मेरा पूर्ण प्रेम जैसे (ধায় যেন মোর সকল ভালবাসা)

धावे मेरा पूर्ण प्रेम जैसे प्रभु ! पास तुम्हारे पास तुम्हारे; पड़ें सभी ज्यों आशाएँ मेरी प्रभु ! तव कानों में, तव कानों में । जहाँ कहीं भी रहे चित्त मेरा सुनकर तव आह्वान हुँकारी भरे; बाधाएँ हो जाएँ दूर जैसे प्रभु ! तव तानों से, तव तानों से । बाहर की यह भीख-भरी थाली हो जाए अब बिलकुल ही खाली; गोपन में भर जाय हृदय मेरा प्रभु ! तव दानों से, तव दानों से । हे मम बन्धु ! अहे मम अन्तरतर ! इस जीवन में जो कुछ हों सुन्दर; ध्वनित आज हो उठें सभी सस्वर, प्रभु ! तव गानों में, तव गानों में ॥

पथ-कर वे वसूलते हैं ले-लेकर नाम तुम्हारा (তারা তোমার নামে বাটের মাঝে)

पथ-कर वे वसूलते हैं ले-लेकर नाम तुम्हारा ; पर, न घाट पर पार उतरने को कुछ भी रह पाता । काम तुम्हारा समझ-बूझ वे नष्ट प्राण-धन करते; जो सामान्य रहा करता है मेरा वे अपहरते ॥ छद्मवेशधारियों को पहचान गया हूँ मैं; जान रखा है उन सबने भी शक्तिहीन -सा मुझको । त्याग दिया है उनने- अपना गोपन रूप इसी से; शेष नहीं रह गई उन्हें हैं- लज्जा-शर्म किसी से। आज खड़े हैं सिर ऊँचाकर पथ अवरुद्ध किए वे ॥

प्राण जागते मेरे इस चाँदनी रात में (এই জ্যোৎস্না রাতে জাগে আমার প্রাণ)

प्राण जागते मेरे इस चाँदनी रात में; स्थान तुम्हारा होगा क्या इस आस-पास में ? देख सकूँ जिससे मैं उस अपूर्व मुख को, सतत ताकते रहे हृदय उत्सुक जिसको; बार-बार तव चरणों पर घिरते-फिरते अश्रुपूर्ण मम गायन रहा करे तिरते । साहस कर मैं नहीं तुम्हारे चरणों पर- अपने को कर सका आज तक भी अर्पित; पड़ा हुआ हूँ मिट्टी पर रख मुख अपना, पीछे को दो फिरा दान तुम यह मेरा ! हाथ पकड़ करके मेरा यदि स्वयं मुझे- कहो खड़ा हो जाने को आ पास यहाँ, तो इन प्राणों की असीम दरिद्रता का अन्त निमिष में ही निश्चय हो जाएगा ॥

बात थी कि हम दोनों एक तरी पर ही (কথা ছিল এক তরীতে কেবল তুমি আমি)

बात थी कि हम दोनों एक तरी पर ही चले चलेंगे बहते हुए अकारण ही; कोई समझेगा न-तीर्थगामी हम हैं, जानेगा भी नहीं कि हम जा रहे कहाँ ! कूलहीन सागर में कान तुम्हारे सुना करेंगे स्वर्णिम गान अकेले- हँसते हुए; तरंगों-सी ही मेरी- भाषा बन्धनरहित रागिनी नीरव । समय हुआ है नहीं आज भी क्या उसका ? सागर-तट पर घिरती आती है सन्ध्या; पंख खोल मद्धिम प्रकाश में हैं अपने नीड़ों में खग सिन्धु पार के फिर आए ! आओगे तुम यहाँ घाट पर कब- काट डालने को बन्धन सारे ? अस्ताचलमुखी शेष रवि-कर-सी तरी चलेगी निरुद्देश निशि में ॥

अपने निर्जन घर की तोड़ रुकावट (আমার একলা ঘরের আড়াল ভেঙে)

अपने निर्जन घर की तोड़ रुकावट इस विशाल भव में, बाहर हो पाना प्राणों के रथ पर कब सम्भव होगा ? बीच सभी के प्रबल प्रेम में धाऊँ मैं सारे कर्मों में; मिलन तुम्हारे साथ हाट के पथ पर कब मेरा होगा ? बाहर हो पाना प्राणों के रथ पर कब सम्भव होगा ? आशा-आकांक्षापूर्ण दुःख-सुख में इस जीवन-क्रम में; कूद पड़ूँगा धर लेने को निज पर लहर-पात उसका ! भले-बुरे के धात-वेग में जाग पड़ेंगा तव वक्षस् पर; सुना करूँगा वाणी विश्वजनों के गुंजित कलरव में। बाहर हो पाना प्राणों के रथ पर कब सम्भव होगा ?

अब न अकेला इस प्रकार मैं विचरूँगा (একা আমি ফিরবনা আর)

अब न अकेला इस प्रकार मैं विचरूँगा मन के मोह सदन के कोने-कोने में। तुम्हें अकेला बाँधे भुज-बन्धन में, छोटा करके तुम्हें घेर लेने में, अपने को मैं बाँध लिया करता हूँ अपनी ही रज्जू में ! पाऊँगा जब निखिल भुवन के बीच तुम्हें, तभी हृदय में हृदय-राज को पाऊँगा । मन मेरा यह एक वृन्त है केवल, इसके ऊपर विश्व- कमल औ' उस पर- पूर्ण प्रकाश प्रसारित मुझे दिखाओ : हे प्रभु! इस जीवन में ॥

चाहता हूँ मैं तुम्हें चिर, (চাইগো আমি তোমারে চাই)

चाहता हूँ मैं तुम्हें चिर, चाहता हूँ मैं तुम्हें; कह सकूँ यह बात जैसे सर्वदा मन में स्वयं । वासनाएँ ये मुझे, जो रात-दिन भटका रही हैं, हैं न सच, मिथ्या सभी हैं । चाहता हूँ मैं तुम्हें ॥ रात रहती है छिपाए ज्यों उजाले की विनय पर, मोह में गम्भीर त्यों ही चाहता हूँ मैं तुम्हें । शान्ति को हनती झड़ी है, चाहती, पर, शान्ति उसको; घात तुम पर नित किए भी, चाहता हूँ मैं तुम्हें ॥

न तो मेरा प्रेम भीरु ही है (আমার এ প্রেম নয়ত ভীরু)

न तो मेरा प्रेम भीरु ही है या न हीन बल ही है; क्या यह केवल व्याकुल हो नित आँसू अपने ढाले ? मन्द-मधुर सुख- शोभा में, क्यों दूँ प्रेम डुबो शय1 में ? जागूँ साथ साथ तुम्हारे ही मैं- हो प्रमोद-पागल । करते हो जब नृत्य चंड2 तब ताल तीव्र होता; भय-लज्जा से विह्वल हो सन्देह भाग जाता । उसी प्रचंड मनोहर को कर ले वरण प्रेम मेरा; क्षुद्र आस-स्वर3 ज्यों उसका जाए चला रसातल ॥ 1. शय-शयन, 2. चंड- प्रचंड, 3. स्वर्-स्वः (स्वर्ग)

और सहो मेरा प्रहार तुम (আরো আঘাত সইবে আমার)

और सहो मेरा प्रहार तुम, मेरा भी सहन करो; और कठिन सुर में जीवन के तारों को झंकारो । राग जगाते जो प्राणों में बजते नहीं चरम तानों में; निठुर मूर्च्छना से गायन में मूर्ति (स्वयं) संचारो ॥ लगे केवल कोमल करुणा जैसे मेरे मन में; मृदुल रों के खेल-खेल में प्राण विकल ये मत हों। सकल अग्नि प्रज्ज्वलित शीघ्र हो, गर्जन अब कर उठे प्रभंजन; त्वरित जगाए पूरे नभ में पूरणता विस्तारो ॥

अच्छा किया, निठुर ! यह तुमने (এই করেছ ভাল নিঠুর)

अच्छा किया, निठुर ! यह तुमने, अच्छा बहुत किया है, अग्नि- ज्वाल ऐसा ही मेरे उर में तीव्र जला दो । धूप अगर मेरा न जले तो, होगी नहीं सुगन्ध तनिक भी ; दीप अगर मेरा न जले तो, होगा नहीं प्रकाश तनिक भी ॥ चित्त अचेतन में रहता है पड़ा हुआ जब मेरा, पुरस्कार, आघात-स्पर्श का, मिलता इसे तुम्हारा । अन्धकार में मोह-लाज से देख न पाता तुम्हें नेत्र से; अग्नि जलाकर वज्र बना दो मेरी श्यामलता को ॥

तुम्हें देवता जान दूर मैं खड़ा रहा (দেবতা জেনে দূরে রই দাঁড়ায়ে)

तुम्हें देवता जान दूर मैं खड़ा रहा, अपना समझ न आदर तुम्हें दिया है; पिता मान मैं करता रहा प्रणाम तुम्हें, बन्धु समझ हैं हाथ धरे न तुम्हारे । सहज प्रेमवश तुम मेरे हो, खुद ही जहाँ उतर आए हो, वहाँ न सुख में मैंने उर में किया वरण संगी कह तुमको | भाई हो तुम बन्धु-बीच, प्रभु ! फिर भी उन्हें न ताका मैंने; बाँट भाइयों में अपना धन मुट्ठी नहीं भरी तब मैंने । दौड़ आ सबके सुख-दुःख में खड़ा हुआ न तुम्हारे आगे; क्लान्तिहीन कर्मों में सौंपे प्राण न कूदा प्राण- उदधि में ॥

जहाँ विश्व के साथ योग में (বিশ্বসাথে যোগে যেথায় বিহারো)

जहाँ विश्व के साथ योग में विचरण तुम करते हो; वहीं तुम्हारे साथ योग नित मेरा भी होता है । न तो विपिन में या न विजन में और न मेरे अपने मन में; जहाँ सभी के अपने हो तुम, हे प्रिय ! मेरे भी हो ॥ सबके पास जहाँ तुम अपनी- बाँह पसारा करते; वहीं प्रेम मेरा भी, हे प्रिय ! जाग पड़ेगा मन में । प्रेम नहीं रहता गोपन में, छिटक पड़ा करता प्रकाश-सा; - सबके हो आनन्द-विभव तुम, हे प्रिय ! मेरे भी हो ॥

स्वयं खिलाते सुमन-सरिस तुम गान (ফুলের মতন আপনি ফুটাও গান)

स्वयं खिलाते सुमन-सरिस तुम गान । नाथ ! यही नित रहे रहे तुम्हारा दान ॥ देख सुमन ये, मैं आनन्द-विभोर, देने आया हूँ अपना उपहार; ले लो अपने कर में इन्हें सहास, करो कृपा यह, रख लो मेरा मान ॥ फिर, पूजा की वेला हो जब शेष, और, धूल में गायन जब पड़ जाय; क्षति कोई न, रहे धन सतत अजस्र तव मन में, हे नाथ ! लुटे न । खिला करें मेरे जीवन में स्वतः, किया करें ये सार्थक मेरे प्राण ॥

अहे देवता मेरे ! भरकर देह-प्राण ये (হে মোর দেবতা, ভরিয়া এ দেহ প্রাণ)

अहे देवता मेरे ! भरकर देह-प्राण ये, अमृत पान कर लेना क्या तुम चाह रहे हो ? मेरे नयनों में तुम अपना विश्व-रूप- लखने को साध रहे हो अपने कवि को ! मेरे विमुग्ध श्रवणों में नीरव रहते चाह रहे हो सुन लेना तुम अपना गायन ? अहे देवता मेरे ! भरकर देह-प्राण ये, अमृत पान कर लेना क्या तुम चाह रहे हो ? मेरे अन्तस्तल में यह सृष्टि तुम्हारी रचे हुई है एक विचित्र-सी वाणी । साथ उसी के मिल, प्रभु ! प्रीती तुम्हारी गीति जगाया करती मेरी सारी; मधुरस में तुम निज को देखा करते, मुझ में किए दान तुम अपने को ही । अहे देवता मेरे ! भरकर देह-प्राण ये, अमृत-पान कर लेना क्या तुम चाहे रहे हो ?

साध यही है मेरी- हो जीवन-क्रम में (এই মোর সাধ যেন এ জীবন মাঝে)

साध यही है मेरी- हो जीवन-क्रम में, गुंजित तव आनन्द महासंगीत में । गगन तुम्हारा औ' प्रकाश-धारा द्वार देख लघु वापस मत चल दें; सज नृत्यरत षड्ऋतुएँ आवें अन्तर में मम नित नवीनता ले ॥ आनन्द तुम्हारा तन-मन में मेरे किसी आवरण में मत अवरोधित हो; मेरे चरम दुःख में तव आनन्द उठे ज्वलित हो पुण्य-प्रकाश-सरिस । तव आनन्द किए दीनता चूर्ण उभर उठे मेरे सब कर्मों में ॥

अकेला मैं बाहर निकला (একলা আমি বাহির হলেম)

टोहु तुम्हारी लेने हेतु अकेला मैं बाहर निकला; नीरव अन्धकार में मेरे साथ, न जानें, कौन चला ! उसे हटाना चाहा कई तरह से, लौटा तो वह दूर हटा चुपके-से; सोचा मैंने-विपदा दूर हुई है, लेनिक वह आ गया दृष्टि में फिर से | धरा कँपाता चलता है वह, अपनी अति चंचलता से; सब बातों के बीच चाहता अपनी भी बातें कहना । वह तो है मेरा ही अपना 'मैं', प्रभु ! उसे न होती लज्जा कभी तनिक भी; उसे लिये मैं कैसे अपना मुँह ले जाऊँ द्वार तुम्हारे, हे प्रभु! मेरे ?

सबसे अधम, दीन जन सबसे रहें जहाँ (যেথায় থাকে সবার অধম দীনের হতে দীন)

सबसे अधम, दीन जन सबसे रहें जहाँ, सदा तुम्हारे चरण राजते रहे वहाँ; सबसे पीछे, सबसे नीचे, बीच सर्वहाराओं के । जब भी तुम्हें प्रणाम किया करता हूँ मैं, कहाँ रुका रह जाता है प्रणाम मेरा ? चरण जहाँ अपमान तले तव पड़ते हैं, वहाँ न जा जा पाता प्रणाम क्योंकर मेरा ? अहंकार तो पास फटकता है न वहाँ, फिरते हो तुम भूषणहीन भूषणहीन विपन्न जहाँ; सबसे पीछे, सबसे नीचे, बीच सर्वहाराओं के। धन-सम्पत्-सम्पन्न लोग हों जहाँ कहीं, आशा करूँ कि साथ तुम्हारा मिले वहीं; संगीहीनों के संगी तुम रहे जहाँ, कैसे मेरा हृदय पहुँचता है न वहाँ ? सबसे पीछे, सबसे नीचे, बीच सर्वहाराओं के ॥

और न अपने सिर पर अपना (আর আমায় আমি নিজের শিরে)

और न अपने सिर पर अपना बोझा वहन करूँगा; अपने ही दरवाजे पर कंगाल बना न रहूँगा । फेंक तुम्हारे चरणों पर यह बोझा (जैसे-तैसे), अवहेलित जीवन ले मैं तो बाहर निकल पडूंगा । खोज-खबर कुछ भी न रखूँगा, बातें कुछ न करूँगा, और न अपने सिर पर अपना बोझा वहन करूँगा ॥ जिसका भी है स्पर्श वासनाएँ मेरी कर लेतीं; निमिष मात्र में ही प्रकाश को उसका हैं हर लेती। मैं अशुद्ध हाथों से लाया गया न कुछ भी लूँगा; बजे तुम्हारे प्रेम में न जो, उसको नहीं सहूँगा । और न अपने सिर पर अपना बोझा वहन करूँगा ॥

मैं तुम सबकी ओर निहार रहा हूँ (আমি চেয়ে আছি তোমাদের সবাপানে)

मैं तुम सबकी ओर निहार रहा हूँ, स्थान मुझे भी दो तुम अपने बीच; सबसे नीचे धूल भरी धरणी पर । जहाँ न आसन का देना है मूल्य, जहाँ खींचकर रेखा कुछ है लेना; जहाँ मान-अपमान का न है भेद, स्थान वहाँ दो मुझको अपने बीच ॥ जहाँ आवरण बाहर का न रहे कुछ, जहाँ रहे परिचय परिचय अपना उन्मुक्त; अपना कहने को न जहाँ कुछ भी हो । जहाँ न ढँके रहे अपने को सत्य, वहीं खड़ा रह परम दान से 'उनके' भर लूँगा मैं अपना सारा दैन्य । स्थान वहाँ दो मुझको अपने बीच ॥

छोड़ो मत, कसकर गहे रहो (ছাড়িসনে ধরে থাক এঁটে)

छोड़ो मत, कसकर गहे रहो, अजी, तुम्हारी तुम्हारी होगी जय; अन्धकार कट रहा स्यात् है, अजी, नहीं अब कोई भय । लखो, भाल पर पूर्व दिशा के, अन्तराल में सघन विपिन के हुआ शुक्र-नक्षत्रोदय । अजी, नहीं अब कोई भय । ये तो हैं केवल निशिचर, निराश्वास, आलस, संशय अविश्वास जो अपने ऊपर; नहीं भोर के हैं ये सब । आओ, झटपट बाहर आओ, देखो, शीश उठाकर देखो; गगन हुआ अब ज्योतिर्मय । रहा नहीं अब कोई भय ॥

आज हृदय है भरा हुआ मेरा (আছে আমার হৃদয় আছে ভোরে)

आज हृदय है भरा हुआ मेरा, करो खुशी से करना जो चाहो; अन्तस् में यदि इसी तरह राजो बाहर से मेरा सब कुछ हर लो, सभी पिपासाओं का अन्त जहाँ, पूर्ण करो, हैं मेरे प्राण वहाँ; उसके बाद मरुस्थल के पथ पर चढ़ने पर हो उठे धूप प्रखर ॥ खेल-खेलते हो जो छल-बल का, लगता है वह खेल मुझे अच्छा; इधर चक्षु-जल-मज्जित करते हो, उधर हास्य- सज्जित भी करते हो । लगता है जब सब खोया-खोया, तभी खोजने पर जाता हूँ पा; देते फेंक क्रोड़ से मुझे कभी, गले लगा लेते हो पुनः कभी ॥

गर्व किए मैं लेता हूँ वह नाम नहीं (গর্ব্ব করে নিইনি ও নাম, জান অন্তর্যামী)

गर्व किए मैं लेता हूँ वह नाम नहीं, ज्ञात तुम्हें यह है ही, हे अन्तर्यामी ! नाम तुम्हारा फबता क्या मेरे मुँह में ? करते जब उपहास लोग, मैं सोचूँ तब; रमता है तव नाम कंठ में क्या मेरे ? रहता हूँ मैं दूर बहुत ही तुम से, रहे नहीं अज्ञात बात यह मुझसे । नाम-गान के छद्मवेश में शायद मैं, तुम्हें दिया करता हूँ परिचय अपना ही; मन-ही-मन संकोच मुझे यह होता है ॥ मिथ्या अहंकार से रक्षा किया करो, रखो वहाँ मेरे लायक हो स्थान जहाँ ; दूर किए मुझको औरों की नजरों से, किए रहो नित दृष्टि-दान मुझ पर अपना । दया प्राप्त करने को मेरी पूजा ज्यों नहीं किसी के घर में पाए मान कहीं; बैठ धूल पर नित्य पुकारूँ मैं तुमको, नए-नए अपराध, भले करने पर भी ॥

ध्वज फहराए नभ-भेदी रथ पर (উড়িয়ে ধ্বজা অভ্রভেদী রথে)

ध्वज फहराए नभ-भेदी रथ पर बाहर हो आए हैं वे, लो, पथ पर । आओ शीघ्र, खींचनी होगी डोरी, कहाँ सदन के कोने में हो दुबके ? कूद भीड़ के बीच किसी भी विधि से ठाँव बना लो अपना जैसे भी हो ॥ चाहे जो हो घर का काम तुम्हारा, भूल आज जाना होगा वह सारा । खींचो, अपना तन-मन देकर पूरा, खींचो, अपने प्राणों की तज माया; खींचे रहो प्रकाश-तिमिर में कसकर नगर-ग्राम में औ' जंगल-पर्वत पर ॥ वह जो चक्र घूमता है झन झनकर, सुन पाते हो क्या निज उर में वह स्वर ? क्या न रक्त में प्राण तुम्हारा तिरता ? मरणजयी क्या गीत नहीं मन गाता ? क्या न बाढ़-सी वेगवती आकांक्षा- है भविष्य की ओर तुम्हारी जाती ?

सीमा- बीच, असीम ! छेड़ते हो तुम अपना सुर (সীমার মাঝে, অসীম, তুমি)

सीमा- बीच, असीम ! छेड़ते हो तुम अपना सुर; है प्रकाश तव मुझमें, तब ही तो इतना सुमधुर । कितने ही वर्णों में, गन्धों में, कितने ही गानों में, छन्दों में, हे अरुप ! तव रूप-केलि में जागे अन्तः पर । है शोभा तव मुझमें, तब ही तो इतना सुमधुर ॥ मिलन तुम्हारा-मेरा हो तो सब कुछ खुल जाए; ज्वार उभारे विश्व-जलधि तब रह-रहकर लहराए । तव प्रकाश में तनिक न छाया, मुझमें पाता है वह काया; हो उठता मम अश्रुकणों में वह अतिशय सुन्दर । है शोभा तव मुझमें, तब ही तो इतना सुमधुर ॥

नहीं तुम्हारे हेतु मान का आसन (মানের আসন, আরাম শয়ন)

नहीं तुम्हारे हेतु मान का आसन, सुखद शयन है; सब कुछ छोड़ खुशी से आओ, पथ पर साथ चलें हम । आओ, बन्धु ! सभी आ जाओ, एक साथ सब बाहर होओ; आज करेंगे यात्रा हम सब अपमानित लोगों के घर पर ॥ निन्दा के भूषण पहरेंगे, कंठहार काँटों के; धारण माथे पर कर लेंगे बोझे अपमानों के । आश्रय जहाँ दीन-दुखियों के, वहीं लुटा दें माथा अपने; और, त्याग के रिक्त पात्र को भर लें हम आनन्द- सुधा से ॥

त्याग दिए मेरे गायन ने (আমার এ গান ছেড়েছে তার)

त्याग दिए मेरे गायन ने अपने सारे अलंकार हैं: रखा न अपने अलंकरण का इसने कोई अहंकार है । अलंकार अवरोध डालते मिलन बीच मुझ-तुझ में हैं; उनकी मुखरित झंकारों से कथन तुम्हारे दबते हैं ॥ नहीं तुम्हारे सम्मुख टिकता मेरे कवि का गर्वित होना; चाह यही है, हे कवि-पुंगव ! दे दूँ तव पदतल पर धरना । यदि प्रयास कर जीवन -लय में मैं अपनी बाँसुरी बजाऊँ, रन्ध्र- रन्ध्र में, तुम अपना स्वर भर देना, जो मैं सुन पाऊँ ॥

निन्दा, दुःख, अनादर में (নিন্দা দুঃখে অপমানে)

निन्दा, दुःख, अनादर में चाहे जितने आघात लगें, जान रहा हूँ यहाँ न मुझको खोने को कुछ भी तो है । आसन की चिन्ता न मुझे है, पड़ा धूल पर जब मैं हूँ; दैन्य बीच संकोचहीन मैं तव प्रसाद चाहा करता ॥ लोग भला कहते हैं मुझको जब सुख में मैं रहता हूँ; रहती है कुछ वंचकता भी- उनमें; जाना करता हूँ । ले उन वंचकताओं को- सिर पर मैं फिरता रहता हूँ; पास तुम्हारे जाने को भी नहीं समय मैं पाता हूँ ॥

उलझ गई है मोटे-पतले दो तारों में (জড়িয়ে গেছে সরু মোটা)

उलझ गई है मोटे-पतले दो तारों में, जिससे- जीवन-वीणा मेरी बजती नहीं सही सुर में है। इस बेसुरी जटिलता से आकुल हैं प्राण व्यथा से; गायन मेरा अकस्मात् ही थम जाया करता है, जीवन-वीणा मेरी बजती नहीं सही सुर में है ॥ नहीं वेदना यह तो मुझसे सही किसी विध जाती; पहुँच तुम्हारी सभा बीच यों लाज मुझे है आती। गुणी तुम्हारे हैं जो उनके - पास न बैठा जाता मुझसे; सबके पीछे दरवाजे पर अतः खड़ा मैं रहता; नहीं सही सुर में बजती है मेरी जीवन- वीणा ॥

गाने लायक हुआ न कोई गान (গাবার মত হয়নি কোনো গান)

गाने लायक हुआ न कोई गान; देने लायक हुआ न कोई दान । मन में जो था रहा आज भी शेष, तुमसे छल मैं करता रहा अशेष ! कब होगा कर जीवन को परिपूर्ण इस जीवन की पूजा का अवसान ? सेवा कितनों की ही मैं करता, अर्ध्य प्राणपण से देता रहता; सजा दिया करता हूँ सत्यासत्य, पकड़ा जाता हूँ हो दीन अशक्त । छिपा हुआ कुछ नहीं तुम्हारे पास; तव पूजा का साहस औ' विश्वास, जो कुछ है तव चरणों पर कर अर्पित हुए अनावृत हैं ये मेरे प्राण ॥

मुझमें होगी व्यक्त तुम्हारी लीला (আমার মাঝে তোমার লীলা হবে)

मुझमें होगी व्यक्त तुम्हारी लीला, इसीलिए इस भव में हूँ आया। द्वार सभी इस घर के खुल जाएँगे, अहंकार के घन सब फट जाएँगे; आनन्दपूर्ण संसार बीच तुम्हारे, मेरा कुछ भी बाकी नहीं रहेगा ॥ मरते-मरते तब मैं बचा रहूँगा, मुझमें होगी व्यक्त व्यक्त तुम्हारी लीला । सभी वासनाएँ मेरी तब तुमसे थम जाएँगी प्रेमाश्रित हो करके; सुख-दुःख के विचित्र जीवन में फिर तो सिवा तुम्हारे कुछ भी नहीं रहेगा ॥

मुझे बाँध देते हो जब आगे-पीछे (যখন আমায় বাঁধ আগে পিছে)

मुझे बाँध देते हो जब आगे-पीछे, लगता है, तब नहीं छूट मैं पाऊँगा; फेंक दिया करते हो मुझको जब नीचे, लगता है, तब खड़ा नहीं हो पाऊँगा । फिर, जब बन्धन खोल दिया तुम करते हो, और मुझे जब उठा लिया तुम करते हो; झूला करता जीवन तव भुज- झूले में; ऐसा ही मौका तुम मुझको देते हो ॥ भय दिखलाकर तन्द्रा मेरी हरते हो, नींद तोड़कर निर्भय मुझको करते हो; दर्शन देकर प्राणों में आह्वान किए, तदुपरान्त रहते हो, जानें, कहाँ छिपे ! लगता है, खो दिया तुम्हें मैंने तब तो । किन्तु, पुनः आवाज कहीं से देते हो ॥

जननि ! तुम्हारे करुण चरण मैंने (জননী, তোমার করুণ চরণ খানি)

जननि ! तुम्हारे करुण चरण मैंने निरखे आज अरुण किरणों में; जननि ! तुम्हारी मरण-हरण वाणी तिरती चुपके नीरव नभ में । नमन करूँ मैं तुमको भव में, नमन करूँ तुमको कर्मों में; तन-मन-धन सब अर्पित आज करूँ भक्तिपूत तव पूजन- धूपों में । जननि ! तुम्हारे करुण चरण मैंने निरखे आज अरुण किरणों में ॥

आ बैठी थी वह तो मेरे पास (সে যে পাশে এসে বসেছিল)

आ बैठी थी वह तो मेरे पास, न तब मैं जागा । क्या जानें, वह कैसी थी हतभागिनी नींद मेरी ! आई थी वह नीरव निशि में, वीणा थी उसके हाथों में; बजा गई थी सपने में वह एक गम्भीर रागिनी ॥ जागा जब देखा तब मैंने मलय पवन कर पागल- अन्धकार को चीर रहा है अपनी सुरभि बिखेरे। क्यों मेरी निशि यों ही जाती ? पा समीप पाता न उसे मैं ! क्यों उसकी माला की छूवन लगती नहीं हृदय में है ॥

आज तुम्हारी सोने की थाली में (তোমার সোনার থালায় সাজীব আজ)

आज तुम्हारी सोने की थाली में; दुख की अश्रुधार सजाऊँगा मैं ! और, तुम्हारी ग्रीवा हित, हे अम्बे ! मुक्ताओं का का हार गूँथ लूँगा मैं। चन्द्र-सूर्य तव चरणों पर, हे माते ! माला बनकर जड़े हुए हैं दोनों; आज तुम्हारे वक्षस्थल पर मेरे शोभित होगा अलंकार दुःखों का ! धन-धान्य तुम्हारे ही तो धन सब हैं, करना है क्या इनका, तुम ही जानो; देना चाहो तो दे मुझको अथवा, लेना चाहो तो सब कुछ खुद ले लो। मेरे घर की वस्तु दुःख है, तुम तो - जान रही हो, खाँटी बात यही है; ले लो सब प्रसाद दे मुझको, माते ! मेरे मन का अहंकार जो भी है ॥

दुःस्वप्न कहाँ से आ करके (দুঃস্বপন কোথা হতে এসে)

दुःस्वप्न कहाँ से आ करके जीवन में करते गड़बड़ हैं ! रोते-जगते लखा शेष में, मातृक्रोड़ के सिवा न कुछ है । सोचा था कोई और स्यात् भय से जान लगाकर जूझे; आज देखकर हास तुम्हारा- समझा-प्रेम तुम्हारा ही है ॥ लिये हुए सुख-दुःख का भय यह जीवन सदा छला जाता है; मानो, उसके सिवा न कुछ है, और, यही मेरा समुदय है ! काट घोर तम इन आँखों में आवेगा आलोक भोर का; हो परिपूर्ण तुम्हारे सम्मुख थम जाएँगे कल्लोल सभी ॥

आज द्वार पर जाग्रत है ऋतुराज (আজি বসন্ত জাগ্রত দ্বারে)

आज द्वार पर जाग्रत है ऋतुराज । करना मत तुम इसे विताड़ित अपने कुंठित अवगुंठित जीवन में। आज खोल दो अन्तस्तल निज; अपना और पराया आज भुला दो । इन संगीत-मुखर अम्बर में- अपनी सुरभि तरंगित कर दो। बहिर्जगत् में दिक्हारा हो आज माधुरी अपनी भर दो ॥ वन में जो अति निविड़ वेदना पल्लव- पल्लव में मुखरित है। दूर गगन में राह हेरती किसकी व्याकुल वसुन्धरा है ? दक्षिण पवन लगे प्राणों में- मेरे; दस्तक द्वार-द्वार दे- करे याचना क्या कुछ किसके - सौरभ-विह्वल रजनी किसके ? चरणों पर जगती धरणी में ? हे सुन्दर, वल्लभ, कान्त ! कहो, आह्वान तुम्हारा किसके हित है ?

आया है आषाढ़ पुनः नभ में छाए (আবার এসেছে আষাঢ় আকাশ ছেয়ে)

आया है आषाढ़ पुनः नभ में छाए; आता है वातास वृष्टि की सुरभि लिये । इधर पुरातन हृदय आज मेरा- पुलकित-कम्पित हो-हो उठता है; नव मेघों की घनता अपने पास लखे, आया है आषाढ़ पुनः नभ में छाए ॥ रह-रहकर विस्तृत खेतों-मैदानों में, नव तृणदल पर मेघों की छाया पड़ती। 'आया है, आया है' – कहते प्राण; 'आया है, आया है' – उभरे गान । नयनों में आया है, मन में आया है; आया है आषाढ़ पुनः नभ में छाए ॥

नदी पार का यह आषाढ़ प्रभात-काल (নদী পারের এই আষাঢ়ের)

नदी पार का यह आषाढ़ प्रभात-काल भर लो, हे मन मेरे अपने प्राणों में । हरित नील स्वर्णाभा में मिल सुधा-सिक्त कर डाला जिसने जगा दिया नभ में गम्भीर रव, अपना लो, मन मेरे ! उसको प्राणों में ॥ करते हुए भ्रमण प्रभात में पथ पर यों, दोनों और खिले सुमनों को सब बिटोर लो । उन सबको निज चेतनता से निशि-दिन लेना गूँथ हार में; भाग्य समझकर निज प्रतिदिन को अपना लो, मन मेरे! अपने प्राणों में ॥

आषाढ़ी सन्ध्या घिर आई (আষাঢ় সন্ধ্যা ঘনিয়ে এল)

आषाढ़ी सन्ध्या घिर आई, दिन अब बीत गया; बन्धमुक्त हो रही वृष्टि है रुक-रुककर देखो। घर के कोने में बैठा एकाकी क्या-क्या सोच रहा हूँ मन में ! सजलवायु, जानें क्या-कुछ कह जाती पैठी इस जूही के वन में ! लहर उठी है आज हृदय में मेरे, खोज नहीं पाता हूँ कूल कहीं; सौरभ प्राण जुड़ा जाता है आके, भींग रहे हैं वन के फूल कहीं । रात अँधेरी, पहर-पहर को भर दूँ किस स्वर से, कुछ सोच नहीं पाता; आकुल हूँ मैं सब कुछ भूले, भूल कौन-सी है, क्या जानूँ ! बन्धमुक्त हो रही वृष्टि है रुक-रुककर देखो ॥

आज गहन सावन घन प्रेरित (আজি শ্রাবণ-ঘন গহন মোহে)

आज गहन सावन घन प्रेरित चरणों से तुम आ पहुँचे हो; नीरव रजनीवत् चुपके से सब लोगों की दृष्टि बचाए ! आज नयन मूँदे प्रभात है, पवन वृथा करता पुकार है; निलज नील आकाश ढँके यह सघन मेघ किसने प्रेरा है ? कूजनहीन पड़ा है कानन, द्वार बन्द हैं सभी घरों के; पथिक कौन तुम, भला, अकेले पथिक-शून्य पथ पर आ धमके ? मेरे सखा, प्राणप्रिय मेरे ! द्वार खुला है मेरा, देखो; स्वप्न-सरीखे होकर सम्मुख मुझे उपेक्षित कर मत जाओ ॥

जमे मेघ-पर-मेघ (মেঘের পরে মেঘ জমেছে)

जमे मेघ-पर-मेघ, अँधेरा घिरता आता है; मुझे द्वार पर बिठा अकेला रखते हो तुम क्यों ? मुझे काम के दिन में बहुविध काम रहा करते, कई तरह के लोग मुझे हैं हरदम घेरे रहते; आज तुम्हारे आश्वासन पर बैठा रहा यहाँ, मुझे द्वार पर बिठा अकेला रखते हो तुम क्यों ? दर्शन दो न, रहो करते यदि मेरी अवहेला, कैसे कटे, कहो, तब मेरी मेघपूर्ण वेला ? दूर-दूर तक आँख बिछाए हेरा करता हूँ, प्राण किया करते क्रन्दन दूरन्त पवन से हैं । जमे मेघ-पर-मेघ, अँधेरा घिरता आता है; मुझे द्वार पर बिठा अकेला रखते हो तुम क्यों ?

आज वारि, लो, झरता झर-झर (আজ বারি ঝরে ঝর ঝর)

आज वारि, लो, झरता झर-झर भरे हुए मेघों से है; फोड़ गगन आकुल जल-धारा थमती नहीं कहीं भी है। शाल-विपिन में दल-के-दल है झूम-झूम मैदानों में है इधर-उधर वर्षा होती; मेघों से लग गई झड़ी; जटा पसारे मेघों की यों कौन आज है नाच रही ? अजी, खुला है मन मेरा यह, लुटा झड़ी में हो जैसे; वक्षस्थल- पूरित तरंग है पड़ती पाँवों पर किसके ? अन्तस् में कलरव यह कैसा, खुले द्वार का पट है ज्यों; हृदय-बीच जागा पागल-सा मास भाद्रपद में है यों । आज रात घर-बाहर ऐसा कौन मत्त हो रहा, भला ?

व्योमतल में खिल गया आलोक-शतदल (আকাশ তলে উঠ্ল ফুটে)

व्योमतल में खिल गया आलोक-शतदल; दिग्दिन्तर पुष्प-दल छादित हुआ है, ढँक गया है निविड़ तम का सलिल श्यामल । बीच में आसीन स्वर्णिम कोष में मैं- बन्धु ! अपने-आपमें आनन्दरत हूँ; घेरता आता मुझे मुझे आलोक-शतदल । पवन नभ में चल रहा, लहरा रहा है; गान चारों ओर गुंजित हो रहा है। प्राण चारों ओर नर्तन कर रहा है, गगन-पूरित स्पर्श तन में लग रहा है। मैं लगा डुबकी समुद्र इस प्राण- सर में, भर रहा हूँ प्राण निज अन्तःकरण में; घेरता मुझको पवन ज्यों चल रहा है। दसों दिशाओं से आँचल निज फैलाए, मिट्टी ने आह्वान किया है; जहाँ कहीं जो जीव रहा है, सबको उसने बुला लिया है; सबके हाथों में, सबके ही पातों में वितरित उसने अन्न किया है। भरा हुआ मन गीत-नाद से बैठा हूँ मैं महोल्लास से; मुझे घेर आँचल अपना फैलाए मिट्टी ने आह्वान किया है । नमस्कार, आलोक ! तुम्हें है, मेटो तुम मेरा अपराध; और, भाल पर मेरे रख दो शुभ्र पिता के आशीर्वाद । पवन ! तुम्हें मम नमस्कार है, रह न जाय कोई अवसाद; कर दो पूरे तन में मेरे व्याप्त पिता के आशीर्वाद । मिट्टी ! तुमको नमस्कार है, मिट जाए अब मेरी साध; घर-भर फलीभूत कर दो तुम आज, पिता के अशीर्वाद ॥

खो गया आज है मन मेरा (চিত্ত আমার হারাল আজ)

खो गया आज है मन मेरा मेघों में; पता नहीं चल सका कहाँ है क्या, जानें। बिजली है उसकी वीणा के तारों में, बार-बार बज उठते जो उठते जो आघातों से; ठनका करता है वक्षस्थल पर ठनका, महानाद से कैसा ! पुंज-पुंज गुरु भारों से निविड़ नील घन तम में, जुड़ा अंग है मेरा यह, प्राणों में है सिमटा । पागल मरुत नृत्यमत्त हो हुआ आज है संगी मेरा; अट्टहास करता आता है, नहीं मानता वारण ॥

आज निरखता हूँ, मैं बहुविधि (আজ বরষার রূপ হেরি মানবের মাঝে)

आज निरखता हूँ, मैं बहुविधि मानव-बीच रूप पावस के । निविड़ साज साजे चलते हैं मेघ गगन में गर्जन करते ॥ नाच रही ज्यों उनके उर में भीमा, लुप्त किए चलते धावन से सीमा; किस ताड़न से मेघ मेघ आपस में- वज्र-नाद करते टकराते ? मानव-बीच रूप पावस के ॥ पुंज-पुंज में मेघ गगन में हैं जो दूर- सुदूर विचरते, दल-के-दल चलते रहते हैं, किस कारण, कुछ भी नहीं समझते। ज्ञात नहीं है, किस गिरिवर पर कब ये गलकर जल हो गिरें सघन सावन में; ज्ञात नहीं किस समारोह में इनके कैसा भीषण भीषण जीवन-मरण विराजे । मानव-बीच रूप पावस के ॥ वाणी, जो ईशान कोण में गुरु गम्भीर हुआ करती है, क्या जानें, क्या काना-फूसी उनमें यों होती रहती है। दिगन्तराल में क्या भवितव्यता स्तब्ध तिमिर में भाषाहीन व्यथा; कृष्ण कल्पना किस आसन्न कार्यवश निविड़ छाँह में घनीभूत होती । मानव-बीच रूप पावस के ॥

धान-खेतों में धूप-छाँव में (আজ ধানের ক্ষেতে রৌদ্র ছায়ায়)

धान-खेतों में धूप-छाँव में लुका-छिपी का खेला ! नील गगन में उजले घन का बेड़ा किसने खोला ? आज भ्रमर यह भूला करने में मधुपान मधुर है; उड़ता-फिरता इधर-उधर आलोक-मत्त होकर है। लगा आज किस हेतु नदी के तट पर हलचल-मेला ? आज नहीं, हे भाई! मैं घर आज नहीं जाऊँगा; अजी, आज आकाश भंगकर लूट बहिः को लूँगा । ज्वार-सलिल की फेन-राशि जिस भाँति हुआ करती है, इसी हवा में उसी भाँति क्या आज नहीं तिरती है। बजा बाँसुरी बिना काम के आज कटेगी वेला ॥

बाढ़ आज आनन्द-सिन्धु से (আনন্দেরি সাগর থেকে)

बाढ़ आज आनन्द-सिन्धु से ही आ पहुँची है, जी ! डाँड़ थाम बैठें सब-कोई, आओ, रस्सी खींचें । चाहे जितना बोझा लादें, दुःख की तरी पार कर डालें, लहरों पर भी जय हम कर लें, प्राण भले ही जाएँ चले ! बाढ़ आज आनन्द-सिन्धु से ही आ पहुँची है, जी ! कौन पुकार रहा पीछे से, कौन मना करता है ? कौन बात करता है भय की ? भय तो ज्ञात सभी हैं ! कौन शाप, ग्रह-दोष है कि हम- बैठे रहें सुखासन पर जा ? धरे पाल की रस्सी कसकर गाते गीत बढ़ें आगे । बाढ़ आज आनन्द-सिन्धु से ही आ पहुँची है, जी !

आज झड़ी की रात हुआ आगमन तुम्हारा (আজি ঝড়ের রাতে তোমার অভিসার)

आज झड़ी की रात हुआ आगमन तुम्हारा है, प्राण-सखा हे मेरे बन्धु ! रोता है आकाश हताश-सा नहीं नींद है नयनों में मेरे द्वार खोल करके, हे प्रियवर ! बार-बार मैं तुम्हें निहार रहा हूँ । प्राण- सखा हे मेरे बन्धु ! बाहर कुछ मैं देख न पाता, सोचा करता हूँ कि किधर पथ बन्धु ! तुम्हारा है। किस सुदूर सरिता के पार, किस दुर्गम जंगल के पास, किस गम्भीर तमिस्रा होकर हो जाते हो पार, भला, तुम ? प्राण- सखा हे मेरे बन्धु ॥

ज्ञात मुझे है, ज्ञात मुझे, किस आदिकाल से (জানি জানি কোন আদি কাল হতে)

ज्ञात मुझे है, ज्ञात मुझे, किस आदिकाल से तुमने मुझे बहाया जीवन की धारा में- सहसा, हे प्रिय ! कितने ही ग्रह-पथ पर तुम नित, हर्ष प्रदान रहे हो करते इन प्राणों में । जानें, कितनी बार बादलों के पीछे से रहा किए हो खड़े-खड़े हँसते-मुस्कराते, अपने पाँव बढ़ाते हुए अरुण किरणों पर स्पर्श प्रदान किया है तुमने मम ललाट पर । संचित रहा किया है मेरे इन नयनों में रूप तुम्हारा काल - काल में, लोक-लोक में; नए-नए आलोकों में, क्या जानें, कितने- हुए मुझे अपरूप रूप के दर्शन तब हैं। नहीं जानता कोई-कितने ही युग-युग से होता रहा किया है, प्रियवर ! इन प्राणों में, कितने ही सुख-दुःखों में, प्रेमिल गानों में, स्नेह-सुधा-रस-वर्षण कितना सतत तुम्हारा ॥

नाथ ! जगाया आज मुझे जब (আমারে যদি জাগালে আজি নাথ)

नाथ ! जगाया आज मुझे जब, वापस मत चल देना तुम तब; अपनी दया-दृष्टि तुम डाल जाना। जल-वर्षण आषाढ़ - मेघ का निविड़ विपिन तरु-शाखाओं पर; मेघपूर्ण आलस में सोई पड़ी हुई यह रात आज है । वापस मत चल देना तब तुम, अपनी दया-दृष्टि डाल जाना ॥ बिजली रह-रह छिटक रही है, इन प्राणों में नींद नहीं है; वर्षा की जल-धारा के सह गाने को जी चाह रहा है । हृदय चक्षु-जल में है मेरा, निकल पड़ा इस तिमिर-बीच जो; व्याकुल हो आकाश चीरकर बलपूर्वक दो हाथ बढ़ाए। वापस मत चल देना तुम तब, अपनी दया-दृष्टि डाल जाना ॥

कास-गुच्छ बाँधा है हमने (আমরা বেঁধেছি কাশের গুচ্ছ)

कास-गुच्छ बाँधा है हमने, गूँथी है शेफाली-माला; नए धान की बालों से है सजा रखी यह डाली हमने । आओ शारद-लक्ष्मी ! अपने शुभ्र मेघ के रथ पर, आओ; आओ, निर्मल नील पंथ पर धौत-श्याम आलोकिन आओ। वन पर्वत - प्रान्तर में आओ || आओ सिर पर धारण करके शतदल श्वेत शिशिर शीतल शुभ झरे हुए मालती पुष्प से सज्जित आसन पर निकुंज में; भरी हुई गंगा के तट पर फिरता मराल तव चरणों पर, पंख पसारने को अति आतुर ! गूँज उठे तव तान शुभंकर स्वर्णिम वीणा के तारों में; मृदु-मृदुतर झंकारों से; हास्य-ध्वनित स्वर विगलित हो तव क्षणिक अश्रुधारा में पड़कर । झलक उठे उठे पारसमणि रह-रह अलकों के छोरों पर अहरह; पलकों पर सकरुण करों से मन अपना करना संचारित; हो जाएगी स्वर्ण भावना, अन्धकार होगा आलोकित ॥

जीवन में जो पूजाएँ थीं (জীবনে যত পূজা)

जीवन में जो पूजाएँ थीं, पूरी हुई नहीं; ज्ञात मुझे है, फिर भी वे हैं मिथ्या हुई नहीं । बिना खिले झड़ गए फूल धरणी पर कितने ही, खोईं सरिता- धाराएँ मरुथल में कितनी ही; ज्ञात मुझे है, तदपि हुई है कोई वृथा नहीं ॥ जीवन में रह गया आज भी जो कुछ पीछे है, ज्ञात मुझे है, हुआ नहीं वह भी तो मिथ्या है। रहा अनागत यहाँ, अनाहत जो कुछ भी मेरा, रहा तुम्हारी वीणा के तारों से वह बजता; ज्ञात मुझे है, तदपि हुई है कोई वृथा नहीं ॥

बैठा हूँ मैं, ताकि प्रेम के हाथों पकड़ा जाऊँ (প্রেমের হাতে ধরা দেব)

बैठा हूँ मैं, ताकि प्रेम के हाथों पकड़ा जाऊँ; देरी हुई बहुत, मैं दोषी हूँ अनेक दोषों से। विधि-विधान की रज्जु बाँधने आती, मैं हट जाता, उस पर जो भी दंड मिले, मैं ग्रहण समुद्र कर लूँगा । बैठा हूँ मैं, ताकि प्रेम के हाथों पकड़ा जाऊँ ॥ लोग किया करते जो मेरी निन्दा, झूठ नहीं है; शिरोधार्य कर उन सबको मैं रहूँ सभी से नीचे। शेष हुई अब बेला, मेला रहा न क्रय-विक्रय का; आए थे जो मुझे बुलाने वे सरोष अब लौटे। बैठा हूँ मैं, ताकि प्रेम के हाथों पकड़ा जाऊँ ॥

अपने नाम तले नाम-तले रखता हूँ जिसे ढँके (আমার নামটা দিয়ে ঢেকে রাখি যারে)

अपने नाम तले नाम-तले रखता हूँ जिसे ढँके, मर जाता वह उसी नाम की कारा में। दिवा-रात्रि में जितना ही सब भूले, रहता नभ तक अपना नाम उछाले; उतना ही तो अपने नाम - तिमिर में, खो देता हूँ सच को, खुद अपने को ॥ धूल जमाकर जमाकर ढेर किया है मैंने, अपना नाम किए रहता हूँ ऊपर; छिद्र कहीं रह ही जाता है उसमें, मन न मानता है विराम कुछ फिर भी; जितना ही करता प्रयास मैं मिथ्या, उतना ही खो देता हूँ अपने को ॥

तोड़ मुझे लो, देर नहीं हो (ছিন্ন করে লও হে মোরে)

तोड़ मुझे लो, देर नहीं हो, कहीं धूल पर गिर न पड़ूँ मैं । फूल, तुम्हारी माला में यह ठाँव सके ले या न सके भी; तदपि तुम्हारे कराघात से- टूट भाग्य जग जाए इसका । तोड़ मुझे लो, तोड़ मुझे लो, और देर मत हो ॥ जानें, कब दिन बीत चुकेगा छा जाएगा घोर अँधेरा; तव पूजा की वेला, जानें, कब चुपचाप निकल जाएगी। कुछ तो इसने रंग धरा है, सुरभि - सुधा से हृदय भरा है; अपनी सेवा में ले लो तुम - इसे समय शुभ रहते-रहते । तोड़ इसे लो, तोड़ इसे लो, और देर मत हो ॥

जहाँ लूट हो रही तुम्हारी भव में (যেথায় তোমার লুট হতেছে ভুবনে)

जहाँ लूट हो रही तुम्हारी भव में, वहाँ चित्त जाएगा कैसे मेरा ! स्वर्णिम घट में सूरज-तारे भर ले प्रकाश-धारा को; घिरे प्राण हैं जहाँ अनन्त गगन में, वहाँ चित्त जागेगा कैसे मेरा ! जहाँ दान के आसन पर तुम बैठो, चित्त वहाँ जाएगा कैसे मेरा ! नए-नए रस में में नित ढाले रखते हो अपने को खोले; क्या न वहाँ आह्वान पड़ेगा मेरा ? चित्त वहाँ जाएगा कैसे मेरा ॥

मरण जिस दिन दिवसान्त में (মরণ যেদিন দিনের শেষে আস্‌বে তোমার দুয়ারে)

मरण जिस दिन दिवसान्त में द्वार तुम्हारे आ पहुँचेगा, उस दिन क्या दोगे तुम उसको ? भरा हुआ यह प्राण समुद्र उसके सम्मुख रख दूँगा; खाली हाथ न उसको विदा करूँगा 1 मरण द्वार पर जिस दिन आ पहुँचेगा ॥ कितनी ही शरद् वसन्त-निशा में, कितनी ही सन्ध्या औ' प्रभात में, रस बरसे कितना ही जीवन - पात्र में; कितने ही फूलों और फलों से भर उठता मेरा हृदय पुलक से; सुख-दुःख की प्रकाश - छाया के स्पर्श से । जो कुछ है संचित धन मेरा इतने दिन के आयोजन से; अन्तिम दिन अर्पित उसको कर दूँगा । मरण द्वार पर जिस दिन आ धमकेगा |

कौन कहा करता कि मरण जब धर लेगा (কে বলে সব ফেলে যাবি)

कौन कहा करता कि मरण जब धर लेगा, तब सब कुछ तुम यहीं छोड़ जाओगे ? प्राप्त किया है जो कुछ तुमने जीवन में, सब ले लेना होगा तुम्हें मरण में । भरे हुए भंडार बीच आ, खाली हाथ चला जाना क्या ? ले जाने लायक जो कुछ हो रख लो अपने पास सजाए ॥ आवर्जन के बोझ अनेकों अब तक जो करते रहे इकट्ठा सतत यहाँ हो, बच जाओगे चलते समय अगर तुम - क्षय उन सबका किए हुए यदि जाओ । आए हो इस पृथ्वी पर तो यहीं तुम्हें सज लेना होगा, राजा जैसा हँसते हँसते- चल देना उस पार मृत्यु के ॥

अरी, मेरे इस जीवन की शेष परिपूर्णता (ওগো আমার এই জীবনের শেষ পরিপূর্ণতা)

अरी, मेरे इस जीवन की शेष परिपूर्णता, मृत्यु, मेरी मृत्यु ! मुझे दो इतनी बात बता । सारा जन्म तुम्हारे हेतु मैं तो प्रतिदिन रहा जागता । रहा वहन करता मैं अपने सुख-दुःख की व्यथा । मृत्यु, मेरी मृत्यु ! मुझे दो इतनी बात बता ॥ जो पाया, जो हुआ, रही जो मेरी आशा, अनजानें तुमसे रही प्रेम की अभिलाषा । होगा मिलन तुम्हारे साथ, मात्र एक शुभ दृष्टिपात से; जीवन-वधू रहेगी नित्य तुम्हारी अनुगता । मृत्यु, मेरी मृत्यु ! मुझे दो इतनी बात बता ॥ गुँथा हुआ है वरण- हार मेरे इस मन में, आओगे कब वर सजकर तुम हँसते-हँसते ? उस दिन मेरा घर न रहेगा कोई; अपना या न पराया होगा कोई; विजन रात में प्रियतम - संग मिलेगी पतिव्रता । मृत्यु, मेरी मृत्यु ! मुझे दो इतनी बात बता ॥

जो कुछ तुमने मन भर मुझे दिया है (যা দিয়েছ আমায় এ প্রাণ ভরি)

जो कुछ तुमने मन भर मुझे दिया है, खेद रहेगा नहीं अगर मर जाऊँ मैं । दिवा-रात्रि, जानें, कितने दुःख-सुख में, कितने ही स्वर बजते रहे हृदय में; कितने ही वेशों में आ इस घर में, कितने ही रूपों में हृदय भरा है। खेद रहेगा नहीं अगर मर जाऊँ मैं | वरण किया है तुम्हें न मन में मैंने, कर न सका हूँ अपना सब कुछ पूरा जो कुछ पाया उसे नियति समझा है, पारसमणि निज तुमने मुझको दी है; ज्ञात मुझे, तुम यह तो जान रहे हो, वही भरोसा - तरी, धरे मैं जाऊँ । खेद रहेगा नहीं अगर मर जाऊँ मैं ॥

मन को, अपनी काया को (মনকে, আমার কায়াকে)

मन को, अपनी काया को, मिटा डालना चाह रहा मैं इस काली छाया को । उस पावक में जला डालना, उस सागर में डुबो डालना, उन चरणों में गला डालना, पीस डालना माया को । मन को, अपनी काया को ॥ लखता इसे, जहाँ मैं जाता, आसन मारे बैठा पाता; लज्जित हूँ मैं, हर लो तुम ही - घनीभूत इस छाया को । मन को, अपनी काया को ॥ मेरे अनुभावन में तुमको - नहीं रहेगी बाधा कोई; दर्शन दोगे तुम एकाकी, दूर हटाओ माया को । मन को, अपनी काया को ॥

जाने के दिन ऐसा हो कि बता जाऊँ (যাবার দিনে এই কথাটি বলে)

जाने के दिन ऐसा हो कि बता जाऊँ, जो देखा है मैंने, जो पाया है, तुलना उसकी कोई कहीं नहीं है। ज्योति जलधि के बीच यहाँ जो शतदल पद्म विराज रहा है; उसका ही मधुपान किया है मैंने; धन्य इसी से आज हुआ हूँ मैं । जाने के दिन ऐसा हो कि बता जाऊँ ॥ विश्व-रूप के क्रीड़ा-गृह में, कितने ही कर गया खेल मैं; देख लिया अपरूप यहाँ है, अपनी दोनों आँखें खोले । स्पर्श किया जा सकता नहीं जिन्हें, आगे वही सदेह पकड़ में हैं; यहीं शेष यदि करना चाहें, कर दें। जाने के दिन ऐसा हो कि बता जाऊँ ॥

जिस दिन नाम मिटा दोगे, हे नाथ (নামটা যেদিন ঘুচাবে নাথ)

जिस दिन नाम मिटा दोगे, हे नाथ! उस दिन बच जाऊँ मैं हो मुक्त; स्वयं-सृजित सपने से जाऊँ छूट, लिये हुए मैं जन्म तुम्हारे बीच । ढँके तुम्हारे कर का लेखा रचता स्वयं नाम की रेखा; कब तक और कटेगा जीवन- ढोते ऐसी भीषण विपदा ! सबकी सज्जा हरण किए वह अपने को चाहता सजाना; सभी सुरों को रखे दबाए, अपना सुर चाहता बजाना । मेरा नाम भले चुक जाए, नाम तुम्हारा ही हो मुँह में; सबके साथ मिलूँगा उस दिन, बिना नाम के परिचय से ही ॥

जड़ी हुई है ( हृदय बीच ) जो बाधा (জড়ায়ে আছে বাধা, ছাড়ায়ে যেতে চাই)

जड़ी हुई है ( हृदय बीच ) जो बाधा चाह रहा हूँ, उसे छुड़ा मैं जाऊँ; मुक्ति माँगने पास तुम्हारे जाता, (किन्तु) माँगने पर होती है लज्जा । ज्ञात मुझे, हो तुम्हीं श्रेष्ठ जीवन में, नहीं अन्य धन तुम-जैसा है कोई; तब भी जो कुछ जीर्ण-शीर्ण है घर में, उन्हें नहीं जो फेंक कहीं मैं पाता ! तुम्हें किए आचारित मेरे मन में, राशि-राशि भर जाता धूल मरण है; मुझे घृणा है प्राणों से उन सबसे, (किन्तु) वही अच्छा लगता क्यों मुझको ? यही शेष है, धोखाधड़ी जमी है, हुई विफलता, कितनी लुका-छिपी है ! जब भी अपना हित चाहा करता हूँ, भय मन में तब यही हुआ करता है ॥

बीत गया यदि दिवस, न गाते पंछी (দিবস যদি সাঙ্গ হল)

बीत गया यदि दिवस, न गाते पंछी, क्लान्त पवन यदि चलता और नहीं है; निविड़ तमिस्रा से तुम ढाँप मुझे लो, अति घन तिमिर तले ॥ जैसे शनैः-शनैः तुमने सपने में, ढाँप लिया है चुपके से धरणी को; जैसे ढाँप लिए हैं मीलित नेत्र, ढाँप लिया है जैसे निशि- शतदल को ॥ सम्बल जिसका हुआ शेष पथ में ही, क्षति की रेखा है जिसकी निखर उठी; धूल-धूसरित हुआ वस्त्र अवहेलित, शक्ति टूट जाने-जाने को जिसकी करुणाधन ! उसकी गम्भीर गोपनता, लाज बचाए उषाकालवत् तम में, सुधा-सलिल से उसके प्राण जुड़ाना ॥

यात्री हूँ मैं तो, जी (যাত্রী আমি ওরে)

यात्री हूँ मैं तो, जी ! रख न सकेगा कोई मुझे धरे । सुख-दुःख के बन्धन सारे हैं झूठे, बँधा हुआ यह घर न रहेगा पीछे; विषय- भार खींचता मुझे है नीचे ! ढह जाएगा टूट-फूटकर यह तो ॥ यात्री हूँ मैं तो, जी ! पथ पर चलता हुआ गीत मैं गाता । देह-दुर्ग के द्वार खुलेंगे सारे, टूटेगी जंजीर वासनाओं की; भले-बुरे के पार उतर जाऊँगा; लोक-लोक में चलता हुआ रहूँगा ॥ यात्री हूँ मैं तो, जी ! जो हैं भार, दूर सब हो जाएँगे । मुझे दूर से है आकाश बुलाता, भाषाविहीन गायन से अज्ञात के; प्रातः सन्ध्या किसकी वंशी मेरे- मन को खींचा करती गम्भीर स्वर में ! यात्री हूँ मैं तो, जी ! अनजानें मैं निकला एक सबेरे । गाता था न कहीं तब कोई पक्षी, पता न, कितनी रात रही थी बाकी: केवल एक आँख ही जगी हुई थी, अन्धकार पर निर्निमेष एकाकी ॥ यात्री हूँ मैं हूँ मैं तो, जी ! किस दिनान्त में पहुँचूँगा किस घर में ! कैसा तारक- दीप वहाँ बारे, पवन वहाँ किस कुसुम-प्राण से रोए ! कौन वहाँ तब स्निग्ध युगल नयनों से मुझे अनादिकाल से लखते रहते ॥

गीत गावाए तुमने मुझसे कितने ही (গান গাওয়ালে আমায় তুমি)

गीत गावाए तुमने मुझसे कितने ही छल से; कितनी ही सुख-क्रीड़ाओं में और अश्रुजल में ! आते-आते भी न पकड़ में हो आते; आ समीप तुम भाग शीघ्रता से जाते ! प्राण व्यथा से भर जाया करते हो पल-पल में । गीत गवाए हैं यों तुमने कितने ही छल से॥ सधे हुए तारों से अपनी वीणा सजाते हो; जीवन को शतछिद्र किए बाँसुरी बजाते हो ! जन्म तुम्हारे सुर सुर की लीला से मेरा, अगर विमोहित हो जाया करता है तो, रखो मुझे चुपचाप शरण दे अपने चरण-तले । गीत गवाए हैं तुमने मुझसे अतीव छल से ॥

सोचा करता मैं कि यहीं है शेष (মনে করি এই খানে শেষ)

सोचा करता मैं कि यहीं है शेष; ( किन्तु ) कहाँ हो पाता शेष ! पुनर्पुनः तव सभा-मंच से (नित्य) आया करता है आदेश ! नए गान में, नए राग में, जाग उठे मन नए ढंग में; स्वर के पथ पर पर चलूँ किधर मैं, हाय ! प्राप्त नहीं कोई उद्देश1 ! सन्ध्या की स्वर्णिम आभा में एक- किए हुए मैं अपनी तान; पुरवाई में शेष किए जब स्वयं रहता हूँ मैं अपना गान; तब निशीथ के घनतर सुर में, पूरित हो उठता है जीवन । नहीं तनिक भी रह जाता है मेरे इन नयनों में निद्रालेश ॥ 1 संकेत

शेष बीच ( भी ) है अशेष (শেষের মধ্যে অশেষ আছে)

शेष बीच ( भी ) है अशेष, यह बात आज मन में; मेरे गायन की समाप्ति पर क्षण-क्षण उठती है । यद्यपि स्वर थम गया, न फिर भी चाह रहा थमना; नीरवता में बजती वीणा बिना प्रयोजन के ॥ लगता जब आघात तार में, बज उठती वह सुर में; सबसे बड़ा गान जो, वह तो रहता दूर पड़ा ! थमने पर आलाप शान्त वीणा पर आ जाता; सन्ध्या जैसे है दिनान्त में बजती गम्भीर स्वर में ॥

मरना नहीं चाहता हूँ मैं इस सुन्दर भव में (মরিতে চাহি না আমি সুন্দর ভুবনে)

मरना नहीं चाहता हूँ मैं इस सुन्दर भव में; मानव बीच मुझे जीवित रहने की इच्छा है। इन रवि-किरणों में, इस मुकुलित-कुसुमित कानन में, स्थान अगर जीवन्त हृदय के बीच एक पाऊँ । यहाँ धरा पर सतत तरंगित प्राणों का खेला, बना सकूँ यदि आलय भानव के सुख-दुःख में गूँथ - विरह-मिलन का, हास्य- रुदन का मैं कोई संगीत ॥ कर न सकूँ यदि वह तो जब तक जीवित रहूँ यहाँ, तब तक ठाँव मिले तुम लोगों के ही बीच मुझे । तोड़ लिया करोगे तुम सब सुबह-शाम यह सोच- मैं संगीत - सुमन नव-नव विकसाया करता हूँ । तोड़ लिया करना तुम लोग फूल हँसते-हँसते; और, फेंक देना उन सबको सूख जभी वे जाएँ ॥ - 'संचयिता' से (मूल)

चित्त जहाँ भय-शून्य रहे (চিত্ত যেথা ভয়শূন্য, উচ্চ যেথা শির)

चित्त जहाँ भय-शून्य रहे, हो उच्च जहाँ माथा, जहाँ ज्ञान हो मुक्त, नहीं प्राचीर जहाँ घर का - कर दे खंडित वसुधा को अपने ही आँगन में- दिवा-रात्रि; हो उच्छल उर से निःसृत वाक्य जहाँ; जहाँ कर्म की धारा हो गतिशील अजस्र, अबाध - सतत सहस्रविध देश-देश में, दिशा-दिशा में, रहे प्रवाहित किए उसे चरितार्थ अहर्निश; जहाँ बालुका-राशि तुच्छ आचार-मरुस्थल की - करे न शतधा पौरुष को ग्रसकर विचार- पथ को; अहे सर्वकर्म-चेता ! हे आनन्द - नेतृ पिता ! अपने ही हाथों करके आघात निठुरता से, उसी स्वर्ग में भारत को तुम जाग्रत तो कर दो ॥ 'नैवेद्य' से (मूल)

आगमन ()

................. रह-रहकर चेतन-सी होकर काँप उठी थी धरणी जैसे; बोले थे दो-एक व्यक्ति तब, पहिये की ध्वनि-सी लगती है। निद्रालस में बोले थे हम बादल गर्जन ही वह होगा। तब भी रात अँधेरी ही थी, जैसे कोई था पुकारता, भेरी-ध्वनि हो उठी तभी थी; जाग पड़ो सब, करो न देरी । हाथ धरे छाती पर हमसब, काँप उठे थे डर के मारे; कहा किसी ने तब चुपके से, राजा की दिख रही ध्वजा है । तब हमसब जगकर बोले थे, और नहीं करनी है देरी । कहाँ प्रकाश, कहाँ थी माला, और, कहाँ कोई आयोजन ? राजा यहाँ पधारे सहसा, कहाँ यहाँ कोई सिंहासन ? हाय नियति, हम लज्जित थे अति, कहाँ सभा या कोई सज्जा । बोले थे दो-एक व्यक्ति तब, व्यर्थ हमारा है यह क्रन्दन; खाली हाथ शून्य घर में ही, करो शीघ्र उनका अभ्यर्थन । अजी ! खोल दो द्वार; बजाओ, अभिनन्दन में शंख बजाओ; आए हैं गम्भीर रात में, आज अँधेरे घर के राजा । वज्रनाद हो रहा शून्य में, क्षण-क्षण बिजली छिटक रही है; जीर्ण-शीर्ण कन्धा, जो भी हो, ले आओ, आँगन सज डालो । आ धमके हैं आज झड़ी के साथ दुःख-रजनी के राजा । - खेमा' से (मूल)

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