बरसि पिया के देस : शंकर लाल द्विवेदी
Baras Piya Ke Des : Shankar Lal Dwivedi



1. बरसि पिया के देस

घिरि-घिरि, पुनि-पुनि, ढरि-ढरि अँखियनि, दै जनि मोहि कलेस। घन कजरारे! तू बजमारे! बरसि पिया के देस।। मुरझि, पौंछि अँसुवा अँगुरिनि, भरि- अँजुरी माँहि कपोल। हमहिं बँधावत धीर, कहे सो- सालत करुए बोल।। चितै तनहिं तन, मन लै भागै, पग-पग पाछैं दीठि। सर-सर सरकै डोरि डु बु कु डु बु जल में डूबै डोल।। संग सहेली हँसैं, ननदिया देति ताहिने तानि। प्यौ-माइलि छरि देह, सिंगारै, जोगिनियाँ के भेस।। बरसि पिया के देस।। परसि थार, धरि सीस घुटुरुअनि, जागूँ, हेरूँ बाट। दिअना निरखन हार, भोर लौं- छूटैं खुले कपाट।। बरजत हू बढ़ि जात, धार लौं- निगुरे लूले प्रान! तिनुका ह्वै बहि चलैं, दरस की- लहरि उतारै घाट।। तनक बिजुरियै हटकि; बाँह बिखरौंही दू:खी जाँहि, बे न गूँथि हैं सुमन, धूरि सौं मढ़े चीकने केस।। बरसि पिया के देस।।

2. दुनिया रैन-बसेरौ

जा दिन काल करैगौ फेरौ- कोई बस न चलैगौ तेरौ। रे प्रानी!- मत कर गरब घनेरौ।। निखरै कंचन जैसी काया, चन्दन-गंधी शीतल छाया। ऐसे मानसरोवर वारे- हंसा उड़ि कहुँ अनत सिधारें, रे पंछी!- दुनिया रैन-बसेरौ।। रे प्रानी!- मत कर गरब घनेरौ।।

3. सामनु आयौ री!

घिरत गगन, घन-सघन, निरखि सखि! सामनु आयौ री! सामनु आयौ री! निरखि सखि! सामनु आयौ री! पीत-भीत, धरनी-हरिनी कौ, हिय हरिआयौ री! मनौं मनभाबन पायौ री। निरखि सखि! सामनु आयौ री! चलति मरुत म्रिदु-मन्द, पुलक मन-मानस में छहरी। उड़त खद्योत दसहुँ दिसि, लागत- पाबस के प्रहरी।। कै दीपाबलि के दीपक- धरि पंख, पबन-पसरे। किंधौ बिलोकन अबनि, देब-गन धरनी पै उतरे।। बोलत-डोलत काग मुँडेरनि, रिमझिम बरसतु मेह। मनौं बियोगिनि बिरहा गाबति, भिजबति अँसुवनि देह।। उमगतु जल, सब थल, लखि सुन्दर समद लजायौ री! निरखि सखि! सामनु आयौ री!

4. तो पै निछाबर तन-मन प्रान

तो पै निछाबर तन-मन प्रान, ओ मेरी धरती मैया! करैगी तो पै सदा अभिमान- तेरी नई सन्तान।। अगिले जनम की कहा चलाई, सौ-सौ जनम लै मैया! केतिकहू डिगुलाइ, भमर तैं- पार करिंगे नैया। तेरे खिबैया चतुर सुजान। ओ मेरी धरती मैया! चलैगौ- परलै लौं अभियान! करैगी, तेरी नई सन्तान, तो पै सदाँ अभिमान।। आकाशवाणी मथुरा से 'काव्य-सुधा' कार्यक्रम के अंतर्गत १६ फ़रवरी, १९७१ को प्रसारित

5. अँचरा भिजबै जल-धार

अँचरा भिजबै जल-धार, सखी री! तन-मन जारै बीजुरी। मेरौ तन-मन जारै बीजुरी।। ताकि-ताकि मारै अनंग सर, सो- अबला ह्वै, हौं कब लौं सहौं। इत-उत, झर-झर पै झर लगै, तिल-तिल करि हौं कौलौं दहौं।। अब जनि भाबै सिंगार सखी! कजराई काया ईंगुरी।। मेरौ तन-मन जारै बीजुरी।। दिअना बरि-बरि बुझि जाय, सखी! अँसुवनि अँगना जमुना कियौ। घिरि-घिरि घुमड़ैं, गरजैं मिटे- बरजैं बदरा लरजैं हियौ।। झलमल झलकै गल-हार, सखी! मोहि भई द्वारिका देहरी।। मेरौ तन-मन जारै बीजुरी।। खटकी साँकर, हौं जानि कैं- पी की आवनि, हुलसूँ जबै- उठिकैं चलती, बिरियाँ मुई, खोलै पर आँधी छ्वै तबै- महकै बेला की डार, उड़ै, उड़ि केस दुखासें आँखड़ी।। मेरौ तन-मन जारै बीजुरी।। आकाशवाणी दिल्ली से प्रसारित

6. तरनी उतरि गई लहरनि में

कर में, कसि कैं गहि पतबार, तरनी उतरि गई लहरनि में। नीलौ अम्बरु, कारौ पानी, इकिलौ जानि हबा बौरानी। छायौ घटा-टोप अँधियार, बिजुरी कौंधन लगी, गगन में। तरनी उतरि गई लहरनि में।। बढ़ि चलि, कहा लहरि की काया, करिहै पुरसारथ तैं माया। मनिरवा! भँमर जाल संसार, डर गयौ तौ डूबैगौ छिन में। तरनी उतरि गई लहरनि में।। इतनीं निहचै जानि खिबैया, जौ लगि धीरज, तौ लगि नैया। उतमैं चढ्यौ धार पै ज्वार, इतमैं पाहन बंध्यौ पगनि में। तरनी उतरि गई लहरनि में।। तिनुका ह्वै, तिरिबे की बारी- मति करि मन पहार सौ भारी। इनकौ, सागरु अगम अपार, भरियो मति अँसुवा अँखियनि में। तरनी उतरि गई लहरनि में।। आकाशवाणी दिल्ली से 'ब्रज-माधुरी' कार्यक्रम के अंतर्गत १२ जून, १९७० को प्रसारित

7. कवित्त

कान्ह कौं, कन्हाई के सखा सनेस दीजो, गोप- गोपिका कुसल पै कुसल-छेम चाहतीं। तुम तौ हिये तैं दूरि जानि ही न पाए, हम- देखतीं, छकाबतीं, सुबैठि बतरावतीं। आजुहू कदम्ब की सघन छाँह, कुञ्ज-पुंज, गुंजति तिहारी, बाँसुरी की धुनि आवती। तुम जौ भए दुःखी तौ, प्राननि तजैंगी स्याम, करौ परतीति, सो तिहारी सौंह खावतीं।। *** बाँसुरी बजाइबे में, लीन ह्वै रह्यौ जु, कान्ह! बीतती हमारे हिरदै पै, सो न जानियै। ठान जाइबे की, ठानि लीती, तौ न रोक्यौ जाइ- मारग तिहारौ, जाहु बेगि लौटि आनियै। राधिका खिस्याइ, नीर लाइ आँखि माँति माँहि, फेरि मुख कह्यौ- ”नाथ एक बात मानियै“। बाँसुरी बजाहु बेगि, स्रौन अकुलात, बेर- ‘मौंहन करौ न प्रान नेह रस सानियै’।। *** सोहत करील-कुञ्ज, गुंजत मधुप-पुंज, मंद-मंद, चंद मुस्कानि छिटकाबतौ। भाबतौ न भाबतौ, पै गाबतौ सुगान कान्ह, आपने करन लट आनि सुरझाबतौ। टेरतौ भलैं न पैन, फेरतौ सलौने नैंन, सैन न चलाबतौ, पै नेह सरसाबतौ। ‘संकर’ मनाबतौ न, बैठतौ कदम तर, मान छाँड़ि देती, नैंकु बाँसुरी बजाबतौ।।